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धर्मशास्त्र का इतिहास ऋचा न कहकर श्लोक कहते हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि धर्म-सम्बन्धी अन्य इलोक-छन्द में या श्लोकों (अनुष्टप्) में प्रणीत थे। बुहलर जैसे विद्वान् तो ऐसा कहेंगे कि पद्य-बद्ध बातें स्मृतिशील थीं, जो जनता की स्मृति में यों ही बहती आती थीं। यदि धर्म-सम्बन्धी विषयों के ग्रन्थ यास्क के पूर्व विद्यमान थे तो धर्मशास्त्रीय ग्रन्थों की तिथि बहुत प्राचीन मानी जायगी। इस विषय में अन्य प्रमाण भी हैं। गौतम, दोधायन तथा आपस्तम्ब के धर्मसूत्र निश्चित रूप से ईसापूर्व ६०० और ३०० के बीच के हैं। गौतम ने धर्मशास्त्रों की चर्चा की है, बौधायन (४.५.९) ने भी 'धर्मशास्त्र' शब्द का प्रयोग किया है।" बौधायन ने 'धर्म-पाठकों की चर्चा की है (१.१.९) । गौतम ने बहुत से धर्मशास्त्रों के शब्द 'इत्येके' कहकर उद्धृत किये हैं (यथा २. १५; २.५८; ३.१; ४.२१; ७.२३)। उन्होंने मनु की ओर एक बार तथा आचार्यों की ओर कई बार (३.३६; ४.१८ एवं २३) संकेत किया है।" बौधायन ने औपजंघनि, कात्य, काश्यप, गौतम, मौद्गल्य तथा हारीत नामक धर्मशास्त्रकारों के नाम गिनाये हैं। आपस्तम्ब ने भी एक, कण्व, कोत्स, हारीत आदि ऋषियों के नाम लिये हैं। एक वार्तिक भी है जिसने धर्मशास्त्र की चर्चा की है। धर्मशास्त्र में लिखित शूद्र-कर्तव्य की ओर जैमिनि ने संकेत किया है।" पतंजलि ने लिखा है कि उनके समय में धर्मसूत्र थे और उनके प्रमाण भगवान् की आज्ञा के बाद महत्त्वपूर्ण माने जाते थे। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि धर्मशास्त्र यास्क के पूर्व उपस्थित थे; कम-से-कम ई० पू० ६००-३०० के पूर्व तो वे थे ही और ईसा-पूर्व की द्वितीय शताब्दी में वे मानव-आचार के लिए सबसे बड़े प्रमाण माने जाते थे।
इस ग्रन्थ में सम्पूर्ण धर्मशास्त्र पर विवेचन निम्न प्रकार से होगा। पहले धर्मसूत्रों का विवेचन होगा, जिनमें आपस्तम्ब, हिरण्यकेशी तथा बौधायन लम्बे मूत्र-संग्रह हैं, गौतम तथा दलिष्ट बहुत बड़े संग्रह नहीं हैं। कुछ धर्मसूत्र, यथा विष्णु, अन्य सूत्र-ग्रन्थों से बाद के हैं, कुछ सूत्र-ग्रन्थ, यथा शंख-लिखित, पैठीनसि, केवल उद्धरण-रूप में विद्यमान हैं। धर्मसूत्रों के उपरान्त हम मनुस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति आदि स्मृतियों का विवेचन उपस्थित करेंगे। इसके उपरान्त नारद, बृहस्पति, कात्यायन की स्मृतियों का वर्णन होगा, जिनमें अन्तिम दो केवल उद्धरणों में ही मिलती हैं। महाभारत, रामायण तथा पुराणों ने भी धर्मशास्त्र के विकास में महत्त्वपूर्ण योग दिया है। अतः इस विषय में इनकी चर्चा होगी। अनन्तर विश्वरूप, मेघातिथि, विज्ञानेश्वर, अपरार्क, हरदत्त नामक स्मृति-टीकाओं का वर्णन
४६. तदेतदृक्श्लोकान्यामम्युक्तम् । अङ्गारङ्गात्सम्भवसि... स जीव शरदः शतम्। अविशेषण पुत्राणां दायो भवति धर्मतः। मिथुनानां विसर्गादौ मनुः स्वायम्भुवोऽब्रवीत् ॥
४७. 'संकेड बुक आफ दि ईस्ट', जिल्द २५, भूमिका भाग।
४८. गौतमधर्मसूत्र, ९.२१-तस्य च व्यवहारो वेदो धर्मशास्त्राच्यङ्गानि उपवेदाः पुराणम्।' 'पृथग्धर्मविवस्त्रयः' वाक्य (गौ० ५० सू० २८.४७) धर्मशास्त्र के छात्रों की ओर संकेत करता है।
४९. त्रीणि प्रथमान्यनिर्वेश्यानि मनुः । गौतमधर्मसूत्र, २१.७ । ५०. धर्मशास्त्रं च तथा। देखिए, महाभाष्य, जिल्द १, पृ० २४२। ५१. शूदश्च धर्मशास्त्रत्वात्। पूर्वमीमांसा सूत्र, ६.७.६।
५२. नैवेश्वर आज्ञापयति नापि धर्मसूत्रकाराः पठन्ति; अपवादरुत्सर्गा बाध्यतामिति । महाभाष्य, जिल्द १,पृ० ११५ तथा जिल्द २, पृष्ठ ३६५ । पतञ्जलि ने 'आम्राश्च सिक्ताः पितरश्च प्रीणिताः' (जिल्द १,१०१४)उद्धृत किया है, जिसे देखिए-आपस्तम्बधर्मसूत्र (१.७.२०.३) तद्ययाने फलार्ये निमिते छाया गन्ध इत्यनूत्पयेते।' पतउजलि ने कहा है-'तैलं न विक्रेतव्यं मांस न विक्रेतव्यम्' तथा 'लोमनखं स्पृष्ट्वा शौचं कर्तव्यम्' (जिल्ल १, पृ० २५) ।
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