________________
धर्मशास्त्रमान्यों का निर्माण-काल
(घृतव्रत) कहा है।" तैत्तिरीय संहिता में कहा है-'अतः शूद्र यज्ञ के योग्य नहीं है। ऐतरेय ब्राह्मण का कथन है कि जब राजा या कोई अन्य योग्य गुणी अतिथि आता है तो लोग बैल या गो-संबंधी उपहार देते हैं।" शतपथब्राह्मण ने वेदाध्ययन को यज्ञ माना है और तैत्तिरीयारण्यक ने उन पाँच यज्ञों का वर्णन किया है, जिनकी चर्ना मनुस्मृति में भली प्रकार हुई है। ऋग्वेद में गाय, घोड़ा, सोने तथा परिधानों के दान की प्रशंसा की गयी है।" ऋग्वेद ने उस मनष्य की भर्त्सना की है. जो केवल अपना ही स्वार्थ देखता है।" ऋग्वेद में 'प्रपा' की चर्चा हुई है, यथा--तु मरुभूमि में प्रपा के सदृश है।" जैमिनि के व्याख्याता शबर तथा याज्ञवल्क्य के व्याख्याता विश्वरूप ने 'प्रपा' (वह स्थान जहाँ यात्रियों को जल मिलता है) के लिए व्यवस्था बतलायी है।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि कालान्तर में धर्मसूत्रों एवं धर्मशास्त्रों में जो विधियाँ बतलायी गयीं, उनका मूल वैदिक साहित्य में अक्षुण्ण रूप में पाया जाता है। धर्मशास्त्रों ने वेद को जो धर्म का मूल कहा है, वह उचित ही है। किन्तु यह सत्य है कि वेद धर्म-सम्बन्धी निबन्ध नहीं है, वहाँ तो धर्म-सम्बन्धी बातें प्रसंगवश आती गयी हैं। वास्तव में धर्मशास्त्र-सम्बन्धी विषयों के यथातथ्य एवं नियमनिष्ठ विवेचन के लिए हमें स्मृतियों की ओर ही झुकना पड़ता है।
३. धर्मशास्त्र-ग्रन्थों का निर्माण-काल धर्म-सम्बन्धी निबन्धों तथा नियमपरक धर्मशास्त्र-सम्बन्धी ग्रन्थों का प्रणयन कब से आरम्भ हुआ? यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है, किन्तु इसका कोई निश्चित उत्तर दे देना सम्भव नहीं है । निरुक्त (३. ४. ५) से प्रकट होता है कि यास्क के बहुत पहले रिक्याधिकार के प्रश्न को लेकर गरमागरम वाद-विवाद उठ खड़े हुए थे, यथा पुत्रों तथा पुत्रियों का रिक्थ-निषेष तथा पुत्रिका के अधिकार। हो सकता है कि रिक्थाधिकार (वसीयत) सम्बन्धी इस प्रकार के वाद-विवाद कालान्तर में लिपिबद्ध हो गये हों। वसीयत-सम्बन्धी वार्ता की ओर यास्क ने जिस प्रकार से संकेत किया है, उससे झलकता है कि उन्होंने कुछ ग्रन्थों की ओर निर्देश किया है, जिनमें वैदिक वचनों के उद्धरण दिये गये थे। एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वसीयत के विषय में यास्क ने एक पद्य का उद्धरण दिया है, जिसे वे
३८. एष च भोत्रियश्चती हवे ही मनुष्येष पतवतो। शतपथब्राह्मण, ५.४.४.५ । ३९. तस्माच्यो योऽनवक्लप्तः। तैत्तिरीय संहिता, ७.१.१.६ ।
४०. तबर्षबायो मनुष्यराज आगतेऽन्यस्मिन्वाहत्युक्षाणं वा बेहतं वा क्षदन्त एवमस्मा एतत्क्षदन्ते पदग्निं मनन्ति । ऐतरेय ब्राह्मण, १.१५ । तुलना कीजिए-वसिष्ठधर्मसूत्र, ४.८।
४१. पञ्च वा एते महायशाः सतति प्रतायन्ते सतति सन्तिष्ठन्ते देवयतः पितृयज्ञो भूतयज्ञो मनुष्ययज्ञो ब्रह्मयज्ञः। तैत्तिरीयारण्यक, २.१०.७।
४२. उज्या विवि दक्षिणायन्तो अस्थैर्ये अश्वदाः सह ते सूर्येण। हिरण्यदा अमृतत्वं भजन्ते वासोदाः प्रोन प्रतिरन्त आयुः। ऋग्वेद, १०:१०७.२ः ।
४३. केवलायो भवति केवलादी। ऋग्वेद, १०.११७.६ । ४. पवानिव प्रपा असि स्वमग्न इयक्षवे पूरखे प्रत्ल राजन् । ऋग्वेद, १०.४.१ । ४५. अर्थता जाम्या रिश्वप्रतिषेध उदाहरन्ति ज्येष्ठं पुत्रिकाया इत्येके।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org