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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास वाली ऋचा आज तक गायी जाती है और विवाह-विवि में प्रमुख स्थान रखती है।" धर्मसूत्रों एवं मनुस्मृति में णित ब्राह्म विवाह-विधि की झलक वैदिक समय में भी मिल जाती है। वैदिक काल में आसुर विवाह अज्ञात नहीं था। गान्धवं विवाह की भी चर्चा वेद में मिलती है। औरस पुत्र की महत्ता की भी चर्चा आयी है। ऋग्वेद में लिखा है--अनौरस पुत्र, चाहे वह बहुत ही सुन्दर क्यों न हो, नहीं ग्रहण करना चाहिए, उसके विषय में सोचना भी नहीं चाहिए। तत्तिरीय संहिता में तीन ऋणों के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। धर्मसूत्रों में वर्णित क्षेत्रज पुत्र की चर्चा प्राचीनतम वैदिक साहित्य में भी हुई है।" तैत्तिरीय संहिता में आया है कि पिता अपने जीवन-काल म ही अपनी सम्पत्ति का बँटवारा अपने पुत्रों में कर सकता है। इसी साहिता में यह भी आया है कि पिता ने अपने ज्येप्ट पुत्र को सब कुछ दे दिया।"ऋग्वेद में यह आया है कि भाई अपनी बहिन को पैतृक सम्पत्ति का कुछ भी भाग नहीं देता। प्राचीन एवं अर्वाचीन धर्मशास्त्र-लेम्वका ने तैत्तिरीय संहिता के एक कथन पर विश्वास रखकर स्त्री को रिक्थ (वसीयत) से अलग कर दिया है। ऋग्वेद ने विद्यार्थी-जीवन (ब्रह्मचर्य) की प्रशंसा की है, शतपथब्राह्मण ने ब्रह्मचारी के कर्तव्यों की चर्चा की है, यथा मदिरा-पान से दूर रहना तथा संध्याकाल में अग्नि में समिधा डालना। तैत्तिरीय संहिता में आया है कि जब इन्द्र ने पतियों को कुनों (भेड़ियों) के (खाने के लिए दे दिया, तो प्रजापति ने उसके लिए प्रायश्चित्त की व्यवस्था की। सतपथ ब्राह्मण ने राजा तथा विद्वान् ब्राह्मणों को पवित्र अनुशासन पालन करनेवाले २५. गृभ्णामि ते सोभगत्राय (ऋग्वेद, १०.८५.३६)। देखिए, आपस्तम्ब-गृह्यसूत्र, २.४.१४ । २६. गौतमय सूत्र ४.४; बौधायनधमंसूत्र १.२.२; आपस्तम्बधर्मसूत्र, २.५.११.१७; मनुस्मृति, ३.२७ । २७. वसिष्ठधर्मसूत्र १.३६.३७; देखिए, आपस्तम्बधर्मसूत्र २.६.१३.११, जहाँ कन्या-क्रय को व्याख्या की गयी है, और देखिए, पूर्वमीमांसासूत्र, ६.१.१५-'क्रयरय धर्ममात्रत्वम्।' २८. भद्रा वधूभवति यत्सुपेशाः स्वयं सा मित्रं वनुते जने चित् । ऋग्वेद, १०.२७.१२ । २९. न हि प्रभायारणः सुशेजो अन्योदयों मनसा मन्तवा उ । ऋग्वेद, ७.५.८। ३०. जागभानो व ब्राह्मगस्त्रिभिऋणवान् जायते, ब्रह्मचर्येण ऋषिभ्यो यज्ञेन देवेभ्यः प्रजया पितृभ्यः । तैत्तिरीय संहिता, ६.३.१०.५। ३१. को वां शयुत्रा विधवेव देवरं मयं न योषा कृगुते सधस्थ आ। ऋग्वेद, १०.४०.२ । ___३२. मनुः पुत्रेभ्यो दायं ध्यभजत् । तैत्तिरोय संहिता, ३.१.९.४) आपस्तम्बधर्मसूत्र (२.६.१४.११) तथा बौधायनधर्मसूत्र (२.२.२) ने इसका आलम्बन लिया है। ३३. तस्माज्ज्येष्ठ पुत्रं धनेन निरवसाययन्ति । तैत्तिरीय संहिता २.५.२.७ । इस कथन को ओर आपस्तम्बधर्मसूत्र (२.६.१४.१२) तथा बौधायनधर्मसूत्र (२.२.५) ने संकेत किया है। ३४. न जामये तान्यो रिक्थमारक-ऋग्वेद, ३.३१.२ । देखिए, निरुक्त (३.५३) को व्याख्या। ३५. तस्मात् स्त्रियो निरिन्द्रिया अदायादोरपि पापात्पुंस उपस्तितरं वदन्ति । तैत्तिरीय संहिता,६.५.८.२ । ३६. ब्रह्मचारो चरति विषद्विषः स देवानां भवत्येकमङ्गम्। ऋग्वेद, १०.१०९.५। शतपथब्राह्मण (११.५.४.१८) में आया है-'तदाहुः। न ब्रह्मचारी सन्मध्वश्नीयात् । तुलना कीजिए, मनुस्मृति, २.१७७ । 'समिध्' के लिए देखिए शतपब्राह्मण (११.३.३.१)। __ ३७. इन्द्रो यतान् शालावृकेभ्यः प्रायच्छत् । मेधातिथि (मनुस्मृति, ११.४५) ने इसका उद्धरण दिया है। देखिए, ऐतरेयब्राह्मण, ७.२८, ताण्ड्यमहाब्राह्मण, ८.१.४, १३.४.१७ तथा अथर्ववेद, २.५.३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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