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________________ धर्म के उपादान 'आनृशंस्यं परो धर्मः' (वनपर्व, ३७३.७६), 'आचारः परमो धर्मः' (मनुस्मृति, १.१०८) । हरोत ने धर्म को श्रुतिप्रमाणक माना है। बौद्ध धर्म-साहित्य में धर्म शब्द कई अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। कभी-कभी इसे भगवान बुद्ध की सम्पूर्ण शिक्षा का द्योतक मामा गया है। इसे अस्तित्व का एक तत्त्व अर्थात् जड़ तत्त्व, मन एवं शक्तियों का एक तत्त्व मी माना गया है। २. धर्म के उपादान गौतमधर्मसूत्र के अनुसार वेद धर्म का मूल है। जो धर्मज्ञ हैं, जो वेदों को जानते हैं, उनका मत ही धर्म-प्रमाण है, ऐसा आपस्तम्ब का कथन है। ऐसा ही कथन वसिष्ठधर्मसूत्र का भी है (१.४.६) ।" मनुस्मृति के अनुसार धर्म के उपादान पांच हैं-सम्पूर्ण वेद, वेदज्ञों की परम्परा एवं व्यवहार, साधुओं का आचार तथा आत्मतुष्टि। ऐसी ही बात याज्ञवल्क्यस्मृति में भी पायी जाती है--- वेद, स्मृति (परम्परा से चला आया हुआ ज्ञान), सदाचार (भद्र लोगों के आचार व्यवहार), जो अपने को प्रिय (अच्छा) लगे तथा उचित संकल्प से उत्पन्न अभिकांक्षा या इच्छा; ये ही परम्परा से चले आये हुए धर्मोपादान हैं।" उपर्युका प्रमाणों से स्पष्ट है कि धर्म के मूल उपादान हैं वेद, स्मृतियाँ तथा परम्परा से चला आया हुआ शिष्टाचार (सदाचार)। वेदों में स्पष्ट रूप से धर्म-विषयक विधियाँ नहीं प्राप्त होती, किन्तु उनमें प्रासंगिक निर्देश अवश्य पाये जाते हैं और कालान्तर के धर्मशास्त्र-सम्बन्धी प्रकरणों की ओर संकेत भी मिलता है। वेदों में लगभग पचास ऐसे स्थल हैं जहाँ विवाह, विवाह-प्रकार, पुत्र-प्रकार, गोद-लेना, सम्पत्ति-बंटवारा, रिवथलाभ (वसीयत), श्राद्ध, स्त्रीधन जैसी विधियों पर प्रकाश पड़ता है। वेदों की ऋचाओं से यह स्पष्ट होता है कि भ्रातृहीन कन्या को वर मिलना कठिन था। कालान्तर में धर्मसूत्रों एवं याज्ञवल्क्य-स्मृति में भ्रातृविहीन कन्या के विवाह के विषय में जो चर्चा हुई है, वह वेदों की परम्परा से गुंथी हुई है। विवाह के विषय में ऋग्वेद की १०.८५ १५. अयातो धर्म व्याख्यास्यामः। श्रुतिप्रमाणको धर्मः। श्रुतिश्च द्विविधा, वैदिको तान्त्रिकी च । कुल्लूफ द्वारा मनु० (२-१) में उद्धृत। १६. An element of existence, i.e. of marter, mind and forces. vide Dr. Stcherbatsky's monograph on the central conception of Buddhism (1923), P. 73. १७. वेदो धर्ममूलम् । तद्विदां च स्मतिशोले। (गौतमधर्मसूत्र, १.१.२)। १८. धर्मज समयः प्रमाणं वेदाश्च । (आपस्तम्ब-धर्मसूत्र, १.१.१.२)। . १९. श्रुतिस्मृतिविहितो धर्मः। तदलाभे शिष्टाचारः प्रमाणम् । शिष्टः पुनरकामात्मा। २०. वेदोऽखिलोधर्ममूलं स्मृतिशोले च तद्विदाम् । आचारश्चैव साधूनामात्मनस्तुष्टिरेव च ॥मनु० २.६ । २१. श्रुतिः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः। सम्यक् संकल्पजः कामो धर्ममूलमिदं स्मृतम् ।। याज्ञवल्क्य, १.७। २२. देखिए, जनल आफ दि बाम्बे ब्रांच, रायल एशियाटिक सोसायटी (J. B. B. R. A.S.), जिल्द २६ (१९२२), पृ० ५७.८२। २३. अमातरिव पित्रोः सचा सती समानादा सदसस्त्वामियं भगम् । ऋग्वेद, २.१७.७ । देखिए, ऋग्वेद, १.१२४.७; ६.५.५, अथर्ववेद, १.१७.१ तथा निरुक्त, ३.४.५ । २४. अरोगिणी भ्रातमतोमसमानार्षगोत्रजाम् । याज्ञवल्क्य, १.५३; देखिए, मनुस्मृति ३.११ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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