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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास शब्द का प्रयोग हुआ है। अथर्ववेद ( ९.९.१७) में 'धर्म' शब्द का प्रयोग " धार्मिक क्रिया संस्कार करने से अर्जित गुण" के अर्थ में हुआ है । ऐतरेय ब्राह्मण में 'धर्म' शब्द सकल धार्मिक कर्तव्यों के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । छान्दोग्योपनिषद् (२.२३) में धर्म का एक महत्त्वपूर्ण अर्थ मिलता है, जिसके अनुसार धर्म की तीन शाखाएँ मानी गयी हैं- (१) यज्ञ, अध्ययन एवं दान, अर्थात् गृहस्थधर्म, (२) तपस्या अर्थात् तापस धर्म तथा . (३) ब्रह्मचारित्व अर्थात् आचार्य के गृह में अन्त तक रहना।" यहाँ 'धर्म' शब्द आश्रमों के विलक्षण कर्तव्यों की ओर संकेत कर रहा है। इस प्रकार हम देखते हैं कि 'धर्म' शब्द का अर्थ समय-समय पर परिवर्तित होता रहा है। किन्तु अन्त में यह मानव के विशेषाधिकारों, कर्तव्यों, बन्धनों का धोतक, आर्य जाति के सदस्य की आचार - विधि का परिचायक एवं वर्णाश्रम का द्योतक हो गया ! तैत्तिरीयोपनिषद् में छात्रों के लिए जो 'धर्म' शब्द प्रयुक्त हुआ है, वह इसी अर्ध में है, यथा "सत्यं वद", “धर्म चर”...आदि (१.११ ) | भगवद्गीता के 'स्वधर्मे निधनं श्रेयः' में मी 'धर्म' शब्द का यही अर्थ है । धर्मशास्त्र-साहित्य में 'धर्म' शब्द इसी अथ प्रयुक्त हुआ है । मनुस्मृति के अनुसार मुनियों ने मनु से सभी वर्णों के धर्मो की शिक्षा देने के लिए प्रार्थना की थी (१.२ ) । यही अर्थ याज्ञवल्क्यस्मृति में भी पाया जाता है ( १.१ ) । तन्त्रवार्तिक के अनुसार धर्मशास्त्रों का कार्य है वर्णों एवं आश्रमों के धर्मों की शिक्षा देना ।" मनुस्मृति के व्याख्याता मेधातिथि के अनुसार मृतिकारों ने धर्म के पाँच स्वरूप माने हैं -- (१) वर्णधर्म, (२) आश्रमधर्म, (३) वर्णाश्रम धर्म, (४) नैमित्तिक धर्म ( यथा प्रायश्चित्त) तथा (५) गुणधर्म ( अभिषिक्त राजा के संरक्षण सम्बन्धी कर्तव्य ) । २ इस पुस्तक में 'धर्म' शब्द का यही अर्थ लिया जायगा । इस सम्बन्ध में ‘धर्म की कतिपय मनोरम परिभाषाओं की ओर संकेत करना अपेक्षित है । पूर्वमीमांसा - सूत्र में जैमिनि ने धर्म को 'वेदविहित प्रेरक' लक्षणों के अर्थ में स्वीकार किया है, अर्थात् वेदों में प्रयुक्त अनुशासनों के अनुसार चलना ही धर्म है । धर्म का सम्बन्ध उन क्रिया-संस्कारों से है, जिनसे आनन्द मिलता है और जो वेदों द्वारा प्रेरित एवं प्रशंसित हैं । " वैशेषिकसूत्रकार ने धर्म की यह परिभाषा की है--धर्म वही है जिससे आनन्द एवं निःश्रेयम की सिद्धि हो ।" इसी प्रकार कुछ एकांगी परिभाषाएँ भी हैं, यथा 'अहिंसा परमो धर्मः' (अनुशासनपर्व, ११५.१), ४ ७. अचित्त्या चेतव धर्मा युयोपिम (६.५१.३), यज्ञेन यज्ञमयजन्त ( ७.५.१), त्रीणि पदा विचक्रमे (७.२७.५) । ८. ऋत सत्यं तपो राष्ट्रं श्रमो धर्मश्च कर्म च । भूतं भविष्यदुच्छिष्टे वीयं लक्ष्मीर्बलं बले । ९. धर्मस्य गोप्तानोति तमभ्युत्कृष्टमेवं विदभिषेक्ष्यन्त्रेतयार्चाभिमन्त्रयंत (ऐतरेय ब्राह्मण, ७.१७) । ऐसी ही एक उक्ति ८.१३ में भी है। उपनिषदों एवं संस्कृत में भी 'धर्म' शब्द बहुव्रीहि समास के पदों में आया है, यथा 'अनुच्छित्तिधर्मा' (बृहदारण्यकोपनिषद्) तथा 'धर्मादनिच् केवलात्' पाणिनि ( ५.४.१२४) का सूत्र । १०. त्रयो धर्मस्कन्धा यज्ञोऽध्ययनं दानमिति प्रथमस्तप एवेति द्वितीयो ब्रह्मचार्याचार्यकुलवासी तृतीयोऽ त्यन्तमात्मानमाचार्यकुलेऽवसादयन् । सर्व एते पुण्यलोका भवन्ति ब्रह्मसंस्थोऽमृतत्वमेति । ११. 'सर्वधर्मसूत्राणां वर्णाश्रमधर्मोपदेशित्वात्', पृष्ठ २३७ । १२. गौतम - धर्मसूत्र ( १९.१) के व्याख्याता हरदत्त तथा मनुस्मृति (२.२५ ) के व्याख्याता गोविन्दराज ने भी धर्म के ये ही पाँच प्रकार उपस्थित किये हैं। १३. चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः (पूर्वमीमांसा सूत्र, १.१.२ ) । १४. अयातो धर्मं व्याख्यास्यामः । यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः (वैशेषिक सूत्र ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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