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अध्याय १
धर्म का अर्थ और धर्मशास्त्रों का परिचय
१. धर्म का अर्थ
'धर्म' शब्द उन संस्कृत शब्दों में है जिनका प्रयोग कई अर्थों में होता आया है। यह शब्द अनेक परिवर्तनों एवं विपर्ययों के चक्र में घूम चुका है। ऋग्वेद की ऋचाओं में यह शब्द या तो विशेषण के रूप में या संज्ञा के रूप में प्रयुक्त हुआ' है ('धर्मन्' के रूप में तथा सामान्यतः नपुंसक लिंग में ) । इस शब्द का इस रूप में प्रयोग छप्पन बार हुआ है। वेद की भाषा में उन दिनों इस शब्द का वास्तविक अर्थ क्या था; यह कहना अशक्य है। स्पष्टतः यह शब्द 'घृ' धातु से बना है, जिसका तात्पर्य है धारण करना, आलम्बन देना, पालन करना । ऋग्वेद की कुछ ऋचाओं में, यथा १.१८७.१, १०.९२.२ तथा १०.२१.३ में 'धर्म' शब्द पुल्लिंग में प्रयुक्त हुआ है ' किन्तु अन्य स्थानों में यह या तो नपुंसक लिंग में है या उस रूप में, जिसे हम पुल्लिंग एवं नपुंसक दोनों समझ सकते हैं। अधिक स्थानों पर 'धर्म', 'धार्मिक विधियों' या 'धार्मिक क्रिया-संस्कारों' के रूप में ही प्रयुक्त हुआ है, यथा ऋग्वेद, १.२२.१८, ५.२६.६, ७.४३.२४, ९.६४.१ आदि स्थानों पर । ऋग्वेद की १.१६४.४३ तथा १०.९०.१६ वाली 'तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्' ऋचां उपर्युक्त कथन को प्रमाणित करती है। इसी प्रकार 'प्रथमा धर्मा' (ऋग्वेद, ३.१७.१ एवं १०.५६.३ ) तथा 'सनता धर्माणि' (ऋग्वेद, ३.३.१ ) का अर्थ क्रमश: प्रथम विधियाँ' तथा 'प्राचीन विधियाँ है । - कही कहीं यह अर्थ नहीं भी प्रकट होता, यथा ४.५३.३, ५.६३.७, ६.७०.१, ७.८९.५; ' जहाँ पर 'धर्म' का अर्थ 'निश्चित नियम' ( व्यवस्था या सिद्धान्त). या 'आचरण-नियम' है। 'धर्म' शब्द के उपर्युक्त अर्थ वाजसनेयी संहिता में भी मिलते हैं (२.३ तथा ५.२७) एक स्थान पर हमें 'ध्रुवेण धर्मणा' का प्रयोग भी मिलता है। वहीं हमें 'धर्मः' (धर्म से) शब्द का बहुल प्रयोग भी मिलता है।' ऋग्वेद के बहुत से मन्त्र अथर्ववेद में मिलते हैं, जिनमें 'धर्मन्'
१. ऋग्वेद (१.१८७.१) पितुं नु स्तोषं महो धर्माणं तविषोम्। यही शुक्ल यजुर्वेद ( ३४.७) में भी आया है । ॠग्वेद (१०.९२.२ ) इममञ्जस्पामुभये अकृण्वत धर्माणमग्निं विवयस्य साधनम् । ऋग्वेद, १०.२१.३ (त्वे धर्माण आसते जुहूभिः सिञ्चतीरिव ) ।
२. आ प्रा रजांसि दिव्यानि पार्थिवा इलोकं देवः कृणुते स्वाय धर्मणे । ३. धर्मणा मित्रांवरुणा विपश्चिता व्रता रक्षेथे असुरस्य मायया । ४. द्यावापृथिवो वरुणस्य धर्मणा विष्कभिते अजरे भूरिरेतसा । ५. अचित्तो यत्तव धर्मा युथोपिम मा नस्तस्मादेनसो देव रीरिषः । ६. देखिए, १०.२९ तथा २०.९ ।
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