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असवर्ण विवाह
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वंशज
ने अपनी कथाओं की नायिकाओं को पर्याप्त प्रौढ रूप में चित्रित किया है। भवभूति के नाटक मालतीमाधव की नायिका मालती प्रथम दृष्टि में प्यार के आकर्षण में पड़ जानेवाली कन्या थी। वैखानस (६।१२) ने ब्राह्मणों के लिए नग्निका एवं गौरी कन्या की बात तो कही है, किन्तु उन्होने क्षत्रियों एवं वैश्यों के लिए यह नियम नहीं बनाया। हर्षचरित के अनुसार राज्यश्री विवाह के समय पर्याप्त युवती थी। संस्कारप्रकाश ने स्पष्ट लिखा है कि क्षत्रियों तथा अन्य लोगों की कन्या के लिए यवती हो जाने पर विवाह करना अमान्य नहीं है।
प्राचीन काल में अनुलोम विवाह विहित माने जाते थे, किन्तु प्रतिलोम विवाह की भर्त्सना की जाती थी। इन्हीं दो प्रकार के विवाहों से विभिन्न उपजातियों की उद्भावना हुई है।
कुछ विशिष्ट विद्वानों (उदाहरणार्थ, श्री सेनार्ट अपनी पुस्तक 'कास्ट इन इण्डिया' में) का कथन है कि आज के रूप में ऋग्वेद एवं वैदिक संहिताओं वाला जाति का स्वरूप नहीं प्राप्त होता। किन्तु हमने बहुत पहले ही देख लिया है कि संहिता-काल में चारों वर्ण स्वीकृत रूप में विद्यमान थे और उन दिनों जाति के आधार पर उच्चता एवं हीनता घोषित हो जाया करती थी। किन्तु उन दिनों अपनी जाति से बाहर विवाह करना अथवा भोजन करना उतना अमान्य नहीं था जितना कि मध्य काल में पाया जाने लगा। वैदिक साहित्य के कुछ स्पष्ट उदाहरण ये हैं--शतपथब्राह्मण (४।११५) के अनुसार जीर्ण एवं शिथिल ऋषि च्यवन का विवाह सुकन्या से हुआ था।, च्यवन भार्गव (भूर या आंगिरस थे और सुकन्या मनु के वंशज गजा शर्यात की पुत्री थी। शतपथब्राह्मण (१३।२।९।८) ने वाजसनेयी संहिता (२६।३०) को उद्धृत कर लिखा है-“अत: वह (राजा) कैश्य नारी से उत्पन्न पुत्र का राज्याभिषेक नहीं करता।" इससे स्पष्ट है कि राजा वैश्य नारी से विवाह कर सकता था। ऋग्वेद के ५।६१।१७-१९ मन्त्र यह बताते हैं कि ब्राह्मण ऋषि श्यावाश्व का विवाह राजा रथवीति दार्य की पुत्री से हुआ था।
अब हम धर्मसूत्रों एवं गृह्यसूत्रों का अनुशीलन करें। कुछ गृह्यसूत्र (यथा आश्वलायन, आपस्तम्ब) तो वधू की जाति के विषय में कुछ कहते ही नहीं। आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।६।१३।१ एवं ३) ने अपने ही वर्ण की कन्या से विवाह करने को लिखा है। इस धर्मसूत्र ने असवर्ण विवाह की भर्त्सना की है। मानव-गृह्य (११७८) एवं गौतम (४।१) ने सवर्ण विवाह की ही चर्चा की है। किन्तु गौतम को असवर्ण विवाह विदित थे, क्योंकि ऐसे विवाहों से उत्पन्न उपजातियों की चर्चा उन्होंने की है। शूद्रापति ब्राह्मण को श्राद्ध में बुलाने को उन्होंने मना किया है। मनु (३।१२), शंख एवं नारद ने अपने ही वर्ण में विवाह करने को सर्वोत्तम माना है। इसे पूर्व कल्प (सर्वोत्तम विधि) कहा गया है। कुछ लोगों ने अनुकल्प (कम सुन्दर विधि) विवाह की भी चर्चा की है, यथा ब्राह्मण किसी भी जाति की कन्या से, क्षत्रिय अपनी, वैश्य या शूद्र जाति की कन्या से, वैश्य अपनी या शूद्र जाति की कन्या से तथा शूद्र अपनी जाति की कन्या से विवाह कर सकता है। इस विषय में बौधायनधर्मसूत्र (१।८।२), शंख, मनु (३।१३), विष्णुधर्मसूत्र (२४।१-४) की सम्मति है। पारस्करगृह्यसूत्र (१।४) तथा वसिष्ठधर्मसूत्र (१।२५) ने लिखा है कि कुछ आचार्यों के कथनानुसार द्विजों को शूद्र नारी से विवाह करना चाहिए किन्तु बिना मन्त्रों के उच्चारण के। वसिष्ठ ने भर्त्सना की है, क्योंकि इससे वंश खराब हो जाता है और मृत्यूपरान्त स्वर्ग की प्राप्ति नहीं होती। विष्णुधर्मसूत्र, मनुस्मृति आदि ने द्विजातियों को शूद्र से विवाह-सम्बन्ध करने की जो मान्यता दी है, वह उनकी नहीं है, उन्होंने तो केवल अपने काल की प्रचलित व्यवस्था की ओर संकेत किया है, क्योंकि उन्होंने कड़े शब्दों में ब्राह्मण एवं शूद्र कन्या से विवाह की भर्त्सना की है। विष्णुधर्मसूत्र (२६।५-६) ने लिखा है कि ऐसे विवाह से धार्मिक गुण नहीं प्राप्त होते, हाँ कामुकता की तुष्टि अवश्य हो सकती है। याज्ञवल्क्य (११५७) ने ब्राह्मण या क्षत्रिय को अपने या अपने से नीचे के वर्ण से विवाह सम्बन्ध करने को कहा है, किन्तु यह बात जोरदार शब्दों में लिखी गयी है कि द्विजातियों को शूद्र कन्या से विवाह कभी न करना चाहिए। किन्तु अपने समय की प्रचलित प्रथा को मान्यता न देना भी कठिन ही था, अतः दोनों (मनु ९।१५२-१५३ एवं याज्ञवल्क्य २।१२५) ने घोषित किया है कि
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