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बाल समापन पास में रखे हुए मान के दुहराने में तथा होम, जप आदि में उनके प्रयोग में उतने मनोयोग की आवश्यकता नहीं पड़ती, ऐसे अवसरों पर अनध्याय को आवश्यक नहीं समझा गया।
एंसा विश्वास किया जाता था कि यदि कोई व्यक्ति अनध्याय के दिनों में वेदाध्ययन करता है तो उसकी आयु बढी हो जाती है, उसकी सन्तानों, पशुओं, बुद्धि एवं ज्ञान की हानि होती है।
केशान्त या गोदान इस संस्कार में सिर के तथा शरीर के अन्य भाग (कांख, दाढ़ी) के केश बनाये जाते हैं । पारस्करगृह्य०, याज्ञप्रलय (१३३६) एवं मनु (२०६५) ने केशान्त शब्द का तथा आश्वलायनगृह्य०, शांखायनगृह्य, गोभिल एवं अन्य गृह्यसूत्रों ने गोदान शब्द का प्रयोग किया है। शतपथब्राह्मण (३।१२।४) में दीक्षा के विषय की चर्चा होते समय कान के कमर सिर के एक भाग के बाल बनाने को 'गोदान' कहा गया है। अधिकांश स्मृतिकारों ने इस संस्कार को सोलहवें वर्ष में करने को कहा है। शांखायनगृह्यसूत्र (१।२८।२०) के अनुसार इसे १६वे या १८वें वर्ष में करना चाहिए। मनु (२६५) के अनुसार यह ब्राह्मणों, क्षत्रियों एवं वैश्यों के लिए क्रमशः १६, २२खें या २४वें वर्ष में सम्पादित होना चाहिए। लघु आश्वलायनस्मृति (१४११) के अनुसार गोदान १६वें वर्ष में होना चाहिए और वह भी विवाह के समय। सम्भवतः यह अन्तिम मत भवभूति के मन में भी था जब कि उन्होंने सीता के मुख से यह कहलवाया कि राम तथा उनके तीन पाइयों का गोदान-संस्कार विवाह के कुछ ही देर पूर्व किया गया था (उत्तररामचरित, अंक १)। यह एक विचित्र बात है कि कौशिकसूत्र (५४।१५) ने गोदान को चूडाकर्म के पूर्व तथा टीकाकार केशव ने जन्म के एक या दो वर्ष उपरान्त करने को कहा है।
___कब से १६वा वर्ष या कोई भी वर्ष गिना जाना चाहिए? इस विषय में मतभेद है। बौधायनधर्मसूत्र (११२१७) ने गर्भाधान से ही गणना की है। इसी नियम के अनुसार मिताक्षरा (याज्ञ० ११३६) तथा कुल्लूक (मनु २०६९) ने ब्राह्मणों के लिए गर्भाधान से १६वा वर्ष तथा अपरार्क ने जन्म से १६वाँ वर्ष माना है। विश्वरूप (याज्ञ० १॥३६) ने लिखा है कि ब्रह्मचर्य की अवधि चाहे जितनी हो (१२, २४, ३६, ४८ आदि) केशान्त १६वें वर्ष हो जाना चाहिए। यदि उपनयन १६ वर्ष के उपरान्त हो तो केशान्त संस्कार किया ही नहीं जायगा। आश्वलायनगृह्यसूत्र (२२२॥३) के टीकाकार नारायण के अनुसार उपनयन के उपरान्त १६वें वर्ष में तथा अन्य लोगों के अनुसार जन्म से १६वें वर्ष में गोदान सम्पन्न होना चाहिए।
गोदान तथा केशान्त की विधि कुछ अन्तर के साथ चूड़ाकरण के समान ही है। हम विस्तार में नहीं पड़ेंगे। लड़कियों के गोदान में मौन रूप से ही क्रियाएँ की जाती हैं, अर्थात् मन्त्रोच्चारण नहीं होता। इस संस्कार में गुरु को गौ का दान किया जाता है। सम्भवतः इसी से गोदान शब्द प्रचलित है। यह संस्कार कालान्तर में समाप्त हो गया, क्योंकि मध्य काल के निबन्ध, यथा संस्कारप्रकाश, निर्णयसिन्धु इसकी चर्चा नहीं करते। आपस्तम्बगृह्य० (१६।१५), हिरण्यकेशिगृह्य० (६।१६), भारद्वाजगृह्य० (१११०), बौधायनगृह्य० (३।२।५५) के अनुसार के शान्त या गोदान में शिखासहित सम्पूर्ण सिर का मुण्डन होता है, किन्तु चौल में ऐसी बात नहीं है।
स्नान या समावर्तन वेदाध्ययन के उपरान्त का स्नान-कर्म तथा गुरुगृह से लौटते समय का संस्कार स्नान या समावर्तन कहा जाता है। कुछ सूत्रकारों, यथा गौतम (८।१६), आपस्तम्ब० (१२११), हिरण्यकेशि० (९।१) तथा याज्ञवल्क्य (११५१) ने 'स्नान' शब्द तथा आश्वलायनगृह्य० (३।८।१), बौधायनगृह्य० (२।६।१), आपस्तम्बधर्मसूत्र (११२।७।१५ एवं
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