________________
२५४
धर्मशास्त्र का इतिहास
में क्षत्रिय नहीं थे। बहुत-से राजाओं ने अपने को सूर्य एवं चन्द्र कुल का वंशज कहा है। राजस्थान एवं मध्यभारत के राजपूत अपने को आबू पर्वत के अग्निकुण्ड से उत्पन्न मानते हैं, यथा- - चौहान, परमार (पर्मार), सोलंकी (चालुक्य) एवं पड़ियार (प्रतिहार) नामक चार कुल के लोग। इस विषय को हम आगे नहीं बढ़ाना चाहते, क्योंकि मत-मतान्तर के विवेचन से अभी तक इस विषय में सत्य का उद्घाटन नहीं हो सका है।
वैदिक काल में भी अनार्य जातियाँ थीं, यथा किरात, अन्ध्र, पुलिन्द, मूतिब। इन्हें ऐतरेय ब्राह्मण ( ३३१६ ) ने 'दस्यु कहा है। वैदिक काल में प्रयुक्त 'म्लेच्छ' शब्द महत्वपूर्ण है। शतपथ ब्राह्मण ( ३।२।१।२३-२४) का कहना है कि असुर लोग इसी लिए हार गये कि वे त्रुटिपूर्ण एवं दोषपूर्ण भाषा बोलते थे, अतः ब्राह्मण को ऐसी दोषपूर्ण भाषा का व्यवहार नहीं करना चाहिए और न इस प्रकार म्लेच्छ एवं असुर होना चाहिए । गौतम (९।१७) का कहना है कि लोगों को म्लेच्छ से नहीं बोलना चाहिए और न अपवित्र, अधार्मिक व्यक्ति से ही बोलना चाहिए। हरदत्त के अनुसार म्लेच्छ लोग लंका या वैसे ही अन्य देशों के अधिवासी हैं, जहाँ वर्णाश्रम की व्यवस्था नहीं है। यही बात विष्णुधर्म० (६४/१५) में भी पायी जाती है । म्लेच्छ देश में श्राद्धकर्म भी मना है (विष्णु धर्म० ८४११-२ एवं शंख १४-३० ) । मनु ( २।२३ ) के अनुसार म्लेच्छ देश आर्यावर्त से बाहर है, आर्यावर्त यज्ञ के योग्य देश है और यहाँ काले हिरन स्वाभाविक रूप में पाये जाते हैं । याज्ञवल्क्य (१।१५) की व्याख्या में विश्वरूप ने भी म्लेच्छ भाषा की भर्त्सना की है। यही बात वसिष्ठधर्म ० (६।४१ ) में भी पायी जाती है। मनु (१०।४३-४४) को ज्ञात था कि पुण्ड्रक, यवन, शक म्लेच्छ भाषा बोलते और आर्य भाषा भी जानते हैं ( म्लेच्छवाचश्चार्य वाचः सर्वे ते दस्यवः स्मृताः) । पराशर ( ९।३६ ) में गोमांस खाने वाले को म्लेच्छ कहा गया है। जैमिनि ने पिक (कोकिल), नेम (आघा), सत (काठ का बरतन ), तामरस (लाल कमल ) शब्दों के विषय में प्रश्न किया है कि क्या ये शब्द व्याकरण, निरुक्त एवं निघण्टु द्वारा समझाये जा सकते हैं या इन्हें वैसा ही समझा जाय जिस अर्थ में म्लेच्छ लोग अपनी बोली में प्रयुक्त करते हैं ? उन्होंने स्वयं अन्त में निष्कर्ष निकाला है। कि उनका वही अर्थ है जो म्लेच्छों द्वारा समझा जाता है (शबर, जैमिनि १।३।१० पर) । पाणिनि ने ' यवनानी' शब्द की व्युत्पत्ति की है और पतञ्जलि ने यवन द्वारा 'साकेत' एवं 'माध्यमिका' के अवरोध की भी चर्चा की है। कुछ ऐतिहासिकों ने इस यवन को मेनाण्डर माना है।" अशोक के शिलालेख में 'योन', रुद्रदामन के लेख में अशोक का प्रान्तपति ' यवनराज' तुषास्फ, प्राकृत अभिलेखों का 'यवन', हाथीगुम्फा का 'यवन', महाभारत का 'यवन' आदि शब्द यह बताते हैं कि यवनों का भारत से सम्बन्ध था और वे अभारतीय थे । द्रोणपर्व ( ११९।४५-४६ ) में आया है कि सात्यकि के विरुद्ध यवन, कम्बोज, शक, शबर, किरात एवं बर्बर लोग लड़ रहे थे । द्रोणपर्व ( ११९-४७-४८) में वे दस्यु तथा लम्बी-लम्बी दाढ़ियों वाले कहे गये हैं। जयद्रथ के अन्तःपुर में कम्बोज एवं यवन स्त्रियाँ थीं। और भी देखिए, शान्तिपर्व (६५।१७ - २८), अत्रि ( ७२ ) एवं वृद्ध-याज्ञवल्क्य ( अपरार्क द्वारा उद्धृत, पृ० ९२३) ।
व्रात्यस्तोम
ताण्ड्य महाब्राह्मण (या पंचविंश) ने चार व्रात्यस्तोमों की चर्चा की है ( १७।१-४) जो एकाह ( एक दिन वाले यज्ञ) कहे जाते हैं। ताण्ड्य ( १७।१।१) ने गाथा कही है कि जब देव स्वर्गलोक चले गये तो उनके कुछ आश्रित, जो व्रात्य जीवन व्यतीत करते थे, यहीं रह गये। देवताओं की कृपा से उनके आश्रित लोगों ने मरुतों से षोडशस्तोम
७९. मेनाण्डर के विषय में देखिए प्राध्यापक अर्जुन चौबे काश्यप कृत 'आदि भारत' नामक ग्रन्थ ( पृ० २७६-७८) ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org