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________________ क्षत्रिय, वैश्य एवं कलियुग o २५३ लोग वेदाध्ययन नहीं कर सकते, उनको यज्ञों में जाना एवं उनसे सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करना (विवाह आदि ) है। आपस्तम्बधर्म ० ( १।१।१।२४-२७) ने इसके लिए प्रायश्चित्त लिखा है। इस धर्मसूत्र के मत से अवधि बीत जाने पर उपनयन करके प्रतिदिन तीन बार वर्ष भर स्नान करते हुए वेद का अध्ययन किया जा सकता है। यह सरल प्रायश्चित है । किन्तु अन्य धर्मशास्त्रकारों ने कठोर प्रायश्चित्त भी बताये हैं। वसिष्ठघर्म० (११।७६-७९) एवं वैखानस (स्मार्त २१३ ) के अनुसार पतितसावित्रीक को उद्दालक व्रत करना चाहिए, या अश्वमेघ यज्ञ करनेवाले के साथ स्नान करना चाहिए या व्रात्यस्तोम यज्ञ करना चाहिए। उद्दालक व्रत में दो मास तक जौ की लप्सी पर, एक मास तक दूष पर, आधे मास तक आमिक्षा (उबलते दूध में दही डालने पर बने हुए पदार्थ ) पर, आठ दिन घृत पर, छः दिन तक बिना मांगे मिक्षा पर, तीन दिन पानी पर तथा एक दिन बिना अन्न-जल के रहना चाहिए। उद्दालक ने इस व्रत का आरम्भ किया था, अत. इसे यह नाम मिल गया है । मनु ( ११।१९१), विष्णुधर्म ० ( ५४।२६) ने पतितसावित्रीक के लिए हलके प्राजापत्य" प्रायश्चित्त तथा याज्ञवल्क्य ( ११३८ ) ; बौघा० गृ० (३।१३।७ ), व्यास ( १।२१ ) एवं अन्य लोगों ने व्रात्यस्तोम का विधान किया है। आपस्तम्बधर्मसूत्र (१।१।११२८, १११२११-४) का कहना है कि यदि तीन पीढ़ियों तक उपनयन न किया गया हो तो ऐसे व्यक्ति ब्रह्म (पवित्र स्तुतियों) के घातक कहे जाते हैं। इनके साथ सामाजिक सम्बन्ध, भोजन, विवाह आदि नहीं करना चाहिए। किन्तु यदि वे चाहें तो उनका प्रायश्चित्त हो सकता है। प्रायश्चित्त के विषय में बड़ा विस्तार है, जिसे यहाँ नहीं दिया जा रहा है। क्षत्रिय, वैश्य एवं कलियुग कलियुग में क्षत्रिय एवं वैश्य पाये जाते हैं ? इस विषय में मध्य काल के लेखकों ने बड़ा विचार किया है। विष्णु पुराण (४।२३।४-५ ), भागवतपुराण (१२/१/६-९), मत्स्यपुराण (२७२।१८-१९ ) आदि ने लिखा है कि महापद्मनन्द क्षत्रियों का नाश कर देंगे और शूद्रों का राज्य आरम्भ हो जायगा। विष्णुपुराण (४१२४१४४ ) ने लिखा है कि पुरु के वंशज देवापि, इक्ष्वाकु के वंशज मनु कलापग्राम में रहते हैं, उन्हें यौगिक शक्तियाँ प्राप्त हैं, वे कलियुग के उपरान्त कृतयुग (सत्ययुग) के आरम्भ में क्षत्रिय जाति का उद्भव करेंगे। कुछ क्षत्रिय आज भी पृथिवी में बीज की भाँति हैं । यही बात वायु ( भाग १, ३२ ३९-४० ), मत्स्य ( २७३५६-५८) आदि में भी पायी जाती है। इन ग्रन्थों के आधार पर मध्य काल के कुछ लेखकों ने लिखा है कि उनके समय में क्षत्रिय नहीं थे। रघुनन्दन के शुद्धितत्त्व ने विष्णुपुराण (४।२३।४) एवं मनु (१०।४३ ) को उद्धृत करके यह घोषणा की है कि क्षत्रिय लोग केवल महानन्दी तक ही पाये गये, इस समय के तथाकथित क्षत्रिय लोग शूद्र हैं तथा वैश्यों की भी यही दशा है। शूद्रकमलाकर के अनुसार चार वर्णों में केवल ब्राह्मण एवं शूद्र ही कलियुग में रह जायेंगे। किन्तु यह मत सभी लेखकों को मान्य नहीं है, क्योंकि कलियुग के सभी चारों वर्णों के कर्तव्यों की तालिका स्मृतियों में पायी जाती है। पराशरस्मृति ने सभी वर्णों की बातें कही हैं। इसी प्रकार अधिकांश सभी निबन्धकारों (संक्षेप करनेवालों तथा टीकाकारों) ने वर्णों के अधिकारों एवं कर्तव्यों की चर्चा की है। मिताक्षरा ने, जो सबसे अच्छा निबन्ध कहा जाता है, कहीं भी ऐसा नहीं लिखा है कि उसके समय ७७. प्राजापत्य के लिए देखिए मनु (११।२११) एवं याज्ञवल्क्य ( ३।३२० ) । यह १२ दिनों तक चलता है, जिनमें तीन दिनों तक केवल प्रातःकाल भोजन होता है, तीन दिनों केवल सन्ध्या कास, तीन दिनों तक बिना माँग मिक्षा पर भोजन होता है तथा अन्तिम तीन दिनों तक बिल्कुल उपवास रहता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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