SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 271
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४८ धर्मशास्त्र का इतिहास ( ७१४३) एवं याज्ञवल्क्य (१।३११) के अनुसार राजा को तीन वेदों, आन्वीक्षिकी, दण्डनीति एवं वार्ता (अर्थशास्त्र ) का पण्डित होना चाहिए। सम्भवतः इस प्रकार के निर्देश आदर्श मात्र थे, व्यावहारिक रूप में इनका पालन बहुत ही कम होता रहा होगा । महाभारत की गाथाओं से यही प्रकट होता है कि, राजकुमार बहुत ही कम गुरुगृह में विद्याध्ययन के लिए जाते थे, उनकी शिक्षा-दीक्षा के लिए शिक्षकों की नियुक्तियाँ हुआ करती थीं (द्रोण को भीष्म ने नियुक्त किया था)। राजकुमार लोग सैनिक दक्षता अवश्य प्राप्त करते थे । राजा लोग धार्मिक मामलों को पुरोहितों पर ही छोड़ देते थे और उन्हीं के परामर्श पर कार्य करते थे । गौतम ( ११।१२ - १३ ) एवं आपस्तम्बधर्मसूत्र ( २।५।१०।१६) के अनुसार पुरोहित को विद्वान्, अच्छे कुल का, मधुर वाणी बोलने वाला, सुन्दर आकृति वाला, मध्यम अवस्था का एवं उच्च चरित्र का होना चाहिए और उसे धर्म एवं अर्थ का पूर्ण पण्डित होना चाहिए। आश्वलायनगृह्यसूत्र ( ३।१२) से पता चलता है कि पुरोहित राजा को युद्ध के लिए सन्नद्ध करता है। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में मनु एवं याज्ञवल्क्य के समान ही राजकुमारों के लिए चार विद्याओं ( उपर्युक्त ) की चर्चा की है। उनका कहना है कि चौल कर्म के उपरान्त राजकुमार को अक्षर एवं गणित का ज्ञान कराना चाहिए और जब उपनयन हो जाय तब उसे चार विद्याएँ १६ वर्ष की अवस्था तक पढ़ानी चाहिए। इसके उपरान्त विवाह करना चाहिए (१५), दिन के पूर्वार्ध में उसे हाथी, घोड़े, रथ की सवारी एवं अस्त्र-शस्त्र चलाना सीखना चाहिए, किन्तु उत्तरार्ध में पुराणों, गाथाओं, धर्मशास्त्र एवं अर्थशास्त्र (राजनीति) का अध्ययन करना चाहिए। हाथीगुम्फा के अभिलेख से पता चलता है कि खारवेल ने उत्तराषिकारी के रूप में रूप (सिक्का), गणना (वित्त एवं राज्यकोष का हिसाब-किताब ), लेख (राजकीय पत्र व्यवहार ) एवं व्यवहार ( कानून एवं न्यायशासन) का अध्ययन १५ वर्ष से २४ वर्ष की अवस्था तक किया। कादम्बरी में आया हैं कि राजकुमार चन्द्रापीड गुरु के यहाँ पढ़ने नहीं गया, प्रत्युत उसके लिए राजधानी के बाहर पाठशाला निर्मित की गयी और वहाँ उसने ७ वर्ष से १६ वर्ष तक विद्याध्ययन किया । धर्मशास्त्र-सम्बन्धी ग्रन्थों में सामान्य क्षत्रियों के विषय में कोई पृथक् उल्लेख नहीं मिलता। किन्तु हमें बहुत-से क्षत्रिय विद्वान् एवं गुरु के रूप में मिलते हैं। स्वयं कुमारिल भट्ट ने लिखा है कि अध्यापन कार्य केवल ब्राह्मणों के ही ऊपर नहीं था, प्रत्युत बहुत से क्षत्रियों एवं वैश्यों ने अपने वास्तविक जाति-गुणों को छोड़कर गुरु-पद ग्रहण किया है ( तन्त्रवार्तिक, पृ० १०८ ) । वैश्यों की शिक्षा के विषय में तो और भी बहुत कम निर्देश प्राप्त होते हैं। मनु (१०।१) ने लिखा है कि तीनों वर्णों को वेदाध्ययन करना चाहिए; व्यापार, पशु-पालन, कृषि वैश्यों की जीविका के साघन हैं, वैश्यों को पशु-पालन कभी भी नहीं छोड़ना चाहिए, उन्हें रत्नों, मूंगों, मोतियों, धातुओं, वस्त्रों, गन्धों, नमक, बीज रोपना, मिट्टी के गुण-दोषों, व्यापार में लाभ-हानि, भृत्यों के वेतन का मान-क्रम, सभी प्रकार के अक्षर, क्रय-विक्रय की सामग्रियों के स्थान का ज्ञान होना चाहिए । याज्ञवल्क्य (२।१८४) एवं नारद (अभ्युपेत्याशुश्रूषा, १६-२० ) से संकेत मिलता है कि लड़के आभूषण निर्माण, नाच-गान आदि शिल्पों को सीखने के लिए शिल्प- गुरु के यहाँ अन्तेवासी रूप में रहते थे। शिल्पविद्या के शिष्य को निर्दिष्ट समय तक शिल्प- गुरु के यहाँ रहना पड़ता था, यदि वह समय से पहले सीख ले, तब मी उसे रहना ही पड़ता था । शिल्प- गुरु को उसके खाने-पीने की व्यवस्था करनी पड़ती थी और उसकी कमाई पर गुरु का अधिकार होता था। यदि शिष्य भाग जाय तो शिल्प-गुरु राजदण्ड का सहारा लेकर उसे दण्डित करा सकता था और बलपूर्वक अपने यहाँ निर्दिष्ट समय तक रहने को बाध्य कर सकता था। धर्मशास्त्रों में शूद्र-शिक्षा के विषय में कोई नियम नहीं है। शूद्र क्रमशः अपनी स्थिति से ऊपर उठे और कालान्तर में उन्हें शिल्प एवं कृषि में संलग्न रहने की आज्ञा मिल ही गयी । सम्भवतः उनके लिए भी वैसे ही नियम बन गये जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy