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इणिका, भाग १५, १०८३)। १८१८६० के कुछ ही पहले पेशवा प्रति वर्ष विद्वान् ब्राह्मणों को दक्षिणा स्प में जो धन देते ये वह लगमग ४ लाख के बराबर रहा करता था। आज भी बीसवीं शताब्दी में बहुत से ऐसे ब्राह्मण मुक है जो वेव एवं शास्त्र के प्राध्यापन में कुछ भी नहीं लेते और न लेने की आशा ही रखते हैं।
मनु (२।१४१), शंखस्मृति (३२) एवं विष्णुधर्मसूत्र (२९।२) के अनुसार जीविका वेद या वेदांग पढ़ाने वाला गुरु उपाध्याय कहलाता है। याज्ञवल्क्य (३२६५), विष्णुधर्मसूत्र (३७।२०) तथा अन्य लोगों ने धन के लिए पढ़ाने एवं वेतनभोगी गुरु से पढ़ने को उपपातकों में गिना है। मृतकाध्यापक एवं उनके शिष्य श्राद में बुलाये जाने योग्य नहीं माने जाते थे (मनु ३।१५६७, अनुशासनपर्व २३।१७ एवं याज्ञवल्क्य १।२२३)। किन्तु मेधातिथि (मनु २।११२ एवं ३॥१४६), मिताक्षरा (याश० २२२३५), स्मृतिचन्द्रिका आदि ने लिखा है कि केवल शिष्य से कुछ ले लेने पर ही कोई गुरु भृतकाध्यापक नहीं कहा जाता, प्रत्युत निर्दिष्ट धन लेने पर ही पढ़ाने की व्यवस्था करने वाला गुरु भर्त्सना का पात्र होता है। किन्तु आपत्काल में जीविका के लिए निर्दिष्ट धन लेने की व्यवस्था की गयी थी (मनु १०।१६ एवं याल. ३२४२)। महाभारत (आदिपर्व १३३।२-३) में आया है कि भीष्म ने पांण्डवों एवं कौरवों की शिक्षा के लिए द्रोणको धन एवं सुसज्जित आवास गृह दिया, किन्तु कोई निर्दिष्ट धन नहीं।
गौतम (१०१९-१२), विष्णुधर्मसूत्र (३७९-८०), मनु (७५८२-८५) एवं याज्ञवल्क्य (१॥३१५-३३३) के अनुसार विद्वान् लोगों एवं विद्यार्थियों की जीविका का प्रबन्ध करना राजा का कर्तव्य था, राज्य में कोई ब्राह्मण भूख से न मरे, यह देखना राज्यधर्म था। यदि गुरु विद्या के अन्त में शिष्य से अधिक धन मांग तो शिष्य सिद्धान्ततः राजा के पास पहुंच सकता था। रघुवंश (५) में कालिदास ने दर्शाया है कि किस प्रकार वरतन्तु ने कौत्स से (१४ विवादों के अनुसार) १४ करोड़ की भारी दक्षिणा मांगी, जिसके लिए कौत्स राजा रघु के पास पहुंचा था और इस धन से कुछ भी अधिक लेने को वह सन्नद्ध नहीं हुआ। कभी-कभी गुरु या गुरु-पत्नी (जैसा कि कुछ आख्यायिकाबों से पता चलता है) भारी दक्षिणा मांगती देखी गयी हैं, यथा गुरुपत्नी द्वारा उत्तंक से रानी के कर्णफूल का मांगा जाना (बादिपर्व, अध्याय ३ एवं आश्वमेधिक पर्व ५६)।
शरीराम के विषय में प्राचीन शिक्षा-शास्त्रियों ने क्या व्यवस्था की थी? गौतम (२०४८-५०) ने लिखा है कि साधारणतः बिना मारे-पीटे शिष्यों को व्यवस्थित करना चाहिए, किन्तु यदि शब्दों का प्रभाव न पड़े तो पतली रस्सी या बांस की फट्टी (चीरी हुई पतली टुकड़ी) से मारना चाहिए, किन्तु यदि अध्यापक किसी अन्य प्रकार (हाथ इत्यादि) से मारे तो उसे राजा द्वारा दण्डित किया जाना चाहिए। आपस्तम्बधर्मसूत्र (११२।८।२९-३०) ने लिखा है कि शब्दों द्वारा भत्सना करनी चाहिए और अपराध की गुरुता के अनुसार निम्न दण्ड में से कोई या कई दिये जा सकते हैं; धमकाना, भोजन न देना, शीतल जल में स्नान कराना, सामने न आने देना। महाभाष्य (माग १,५०४१) ने अनुदात्त को उदात्त और उदात्त को अनुदात्त कहने पर उपाध्याय द्वारा चपेटा (सम्भवतः पीठ पर) मारने की ओर संकेत किया है। मनु (८।२९९-३००), विष्णुधर्मसूत्र (७१-८१-८२), नारद (अभ्युपेत्याशुश्रूषा, १३-१४) ने गौतम का अनुसरण किया है, किन्तु इतना और जोड़ दिया है कि पीठ पर ही मारा जा सकता है, सिर वा छाती पर कभी नहीं। नियम-विरुद्ध जाने पर शिक्षक को वही दण्ड मिलना चाहिए जो किसी चोर को मिलता है (मनु ८१३००)। मनु (२।१५९) ने कहा है कि चरित्र-सम्बन्धी सन्मार्ग में चलने की शिक्षा देते समय मधुर शब्दों का प्रयोग करना चाहिए।
क्षत्रियों, वैश्यों एवं शूद्रों की शिक्षा के विषय में भी कुछ कहना आवश्यक है। गौतम (१९१३) के अनुसार राजा को तीनों वेदों, आन्वीक्षिकी (अध्यात्म या तर्क-शास्त्र) का पण्डित होना चाहिए, उसे अपने कर्तव्य पालन में वेदों, धर्मशास्त्रों, वेद के सहायक ग्रन्थों, उपवेदों एवं पुराणों का आश्रय ग्रहण करना चाहिए (गौतम १९६१९)। मनु
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