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बम्पयन-विधि
अग्नियों, अग्निहोत्र एवं सन्तान के साथ जोड़कर इनकी महत्ता को और भी बल दे दिया है और कहा है कि पर चले जाने पर भी विद्यार्थी को वेदाध्ययन नहीं छोड़ना चाहिए।
बेदाध्ययन का तात्पर्य केवल मन्त्रों को कण्ठस्थ कर लेना नहीं, प्रत्युत अर्थ भी सपसना है (देखिए शंकराचार्य, वेदान्तसूत्र १।३।३० एवं याज्ञवल्क्य ३।३०० पर मिताक्षरा की व्याख्या)। निरक्त (१११८) ने लिखा है कि दिना अर्थ जाने वेदाध्ययन करनेवाला व्यक्ति पेड़ एवं जड़ के समान है और केवल भार वहन करने वाला है, किन्तुको अर्थ जानता है उसे आनन्द की प्राप्ति होती है, ज्ञान से उसके पाप हिल जाते हैं और उसे स्वयं को शापित होती है ! दक्ष (२।३४) के अनुसार वेदाध्ययन में पाँच बातें पायी जाती हैं-वेद को कण्ठस्थ करना, उसके अर्थ पर विचार करना, बार-बार दुहराकर सदा नवीन बनाये रखना, जप करना (मन ही मन प्रार्थना के रूप में दुहराना) एवं दूसरे को पढ़ाना। इस विषय में देखिए मनु (१२११०२), शबर (पृ. ६), विश्वरूप (याङ्ग० ११५१), अपराक (पृ०७४) एवं मेघातिथि (मनु ३३१९)।
उपर्युक्त आदेशों के रहते हुए भी अधिकांश लोग वेद को बिना समझे पढ़ते रहे हैं। महाभारत (उद्योगपर्व १३२१६ एवं शान्तिपर्व १०११) ने बिना अर्थ के रटने वाले श्रोत्रिय की भर्त्सना की है। धीरे-धीरे एक विचित्र भावना घर करने लगी; वेद को केवल याद कर लेने से पाप से मुक्ति हो जाती है। कालान्तर में यह भावना इतनी प्रवल हो उठी कि आज के बहुत-से ब्राह्मण यह कहते सुने जाते हैं कि वेद का अर्थ जानना असम्भव है और उसे जानने का प्रयत्न करना व्यर्थ है। वेदाध्ययन के महत्व की जानकारी के लिए देखिए वसिष्ठधर्म० (२०११), मनु (११॥२४५, २४८, २६०), याज्ञवल्क्य (३१३०७-३१०), विष्णुधर्मसूत्र (५६।१-२७, २७१४, २८०१०-१५) आदि।
__ वेद को कण्ठस्थ करने के उपरान्त उसे सदा स्मृति-पटल में रखना परमावश्यक था। वेद को अलगाम पीने आदि पापों के समान है। यह ब्रह्महत्या के समान भी कहा गया है (मनु १११५६ एवं पाज्ञवल्क्य ३१२२८) ।
मनु (४११६३) ने नास्तिक्य एवं वेद-भत्सना के विरोध में बहुत-कुछ कहा है और एक स्थान ११५६ । पर वेदनिन्दा को महापाप बताया है। याज्ञवल्क्य (३।२८८) ने वेदनिन्दा को ब्रह्महत्या के समान गम्भीर रहा है। गौतम (२१।१) ने नास्तिक को पतित माना है। इस विषय में देखिए विष्णुधर्मसूत्र (३७१४), मनु (२१११), बसिध (१२।४१), अनुशासनपर्व (३७।११)!
७५. इग्वेव में ऐसा सकेत मिलता है (१०॥८६॥१) कि कुछ लोग इन को देवता नहीं मानी ( नमक सत) । दस्युओं को 'अवत, अया, अभव' (ऋ० ११५११८, १९७५१३, ७१६॥३) कहा गया है। कठोपनिषत्र (१५२०) में नचिकेता कहते हैं कि कुछ ऐसे लोग भी थे कि जो कहा करते थे मरने के उपरान्त आत्मा भी जन्ट हो जाता है। पत्र (२१६) का कहना है कि जोपरलोक में नहीं विश्वास करता वह मेरे माल में बार-बार सता है। पाणिनि में नारिक शम्ब की व्युत्पत्ति बतायी है 'अस्ति नास्ति दिष्टं मतिः (४४०६०), जिसका तात्पर्य है "परलोक नहीं है. ऐसी स्त्रिी मति है" (नास्ति परलोक इति मतिर्गस्य) । प्रभाकर की बहती (पूर्वधीमांसा सूत्र की आधn)ले बहरयार को बाब, लोकायत या भौतिकवाद का प्रवर्तक माना है और उसकी टीका जिमला में एक श्लोक 3 का है: "अग्निहोत्रं त्रयोबेबास्त्रिवण भस्मगुष्ठनम् । बुद्धिगरुषहीलाना जीविकेति बृहस्पतिः।" सर्वनर्शनासह (धावति जर्मन) में भी यह इलोक उदत है। मेवातिथि (मन ४११६३) का कहना है- "देवप्रमाणकामार्थाना लियामाहो मास्तिव्यम् । शम्बेन प्रतिपादनं निम्बा पुनरुक्तो वेबोन्योन्यन्याहतो मात्र स्थरमस्तीति।" मन (३६) की माय में स्मृतिधनिका का कहना है-"नास्ति कालान्तरे फलनं कर्म नास्ति देवतेत्यादिमन्तो नास्तिमा अनु (९४२२५)
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