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धर्मशास्त्र का इतिहास ब्रह्मचारी इन शब्दों के साथ मिक्षा मांगता है, 'भवति मिक्षा देहि' (भद्रे, मुझे भोजन दीजिए), किन्तु क्षत्रिय एवं वैश्य ब्रह्मचारी को क्रम से 'भिक्षा भवति देहि' एवं 'देहि भिक्षा मवति' कहना चाहिए। यही बात बौधायनधर्मसूत्र (१।२०१७), मनु (२०४९), याज्ञवल्क्य (११३०) तथा अन्य लोगों ने भी कही है (देखिए शांखायन गृ० २।६।५-८; गोमिलगृ० २।१०।४२-४४; खादिरगृ० २।४।२८-३१)। मनु (२१५) के अनुसार सर्वप्रथम माता से, तब बहिन से या मौसी से मांगना चाहिए। ब्रह्मचारी को भिक्षा देने में कोई आनाकानी नहीं कर सकता था, क्योंकि ऐसा करने पर किये गये सत्कार्यों से उत्पन्न गुण, यज्ञादि से उत्पन्न पुण्य, सन्तान, पशु आध्यात्मिक यश आदि का नाश हो जाता है। यदि कहीं अन्यत्र भिक्षा न मिले तो ब्रह्मचारी को अपने घर से, अपने गुरुजनों (मामा आदि) से, सम्बन्धियों से और अन्त में अपने गुरु से भिक्षा मांगनी चाहिए।
आपस्तम्बधर्मसूत्र (११॥३२५) के अनसार ब्रह्मचारी अपपात्रों (चाण्डाल आदि) एवं अमिशास्तों (अपराधियों) को छोड़कर किसी से भी भोजन मांग सकता है। यही बात गौतम (२०४१) में भी है। इस विषय में मनु (२११८३ एवं १८५), याज्ञवल्क्य (१।२९), औशनस आदि के मत अवलोकनीय हैं। शूद्रों से भोजन मांगना सर्वत्र वजित माना गया है। पराशरमाधवीय (११२) ने लिखा है कि आपत्काल में भी शूद्र के यहाँ का पका भोजन भिक्षा रूप में नहीं लेना चाहिए।
__ मनु (२।१८९), बौधायनधर्मसूत्र (११५।५६) एवं याज्ञवल्क्य (१।१८७) ने भिक्षा से प्राप्त भोजन को शुद्ध माना है। भिक्षा से प्राप्त भोजन पर रहनेवाले ब्रह्मचारी को उपवास का फल पानेवाला कहा गया है (मनु २॥१८८ एवं बृहत्पराशर पृ० १३०) । ब्रह्मचारी को थोड़ा-थोड़ा करके कई गृहों से भोजन मांगना चाहिए। केवल देवपूजन या पितरों के श्राद्ध-काल में ही किसी एक व्यक्ति के यहाँ भरपेट मोजन ग्रहण करना चाहिए (मनु २॥१८८१८९ एवं याज्ञ. ११३२)।
गौतम (५११६) ने लिखा है कि प्रति दिन वैश्वदेव के यज्ञ एवं भूतों की बलि के उपरान्त गृहस्थ को 'स्वस्ति' शब्द एवं जल के साथ भिक्षा देनी चाहिए। मनु (३१९४) एवं याज्ञवल्क्य (१।१०८) ने कहा है कि यतियों एवं ब्रह्मचारियों को भिक्षा (भोजन) आदर एवं स्वागत के साथ देनी चाहिए। मिताक्षरा ने एक कौर (ग्रास) की भिक्षा को बात चलायी है (याज्ञ० १११०८)। एक कौर (ग्रास) मयूर (मोर) के अण्डे के बराबर होता है। एक पुष्कल चार ग्रास के बराबर, हन्त वार पुष्कल के बराबर तथा अग्र तीन हन्त के बराबर होता है।"
प्राचीन काल में प्रति दिन अग्नि में समिधा डालना (होम) तथा भिक्षा मांगना इतना आवश्यक माना जाता था कि यदि कोई ब्रह्मचारी लगातार सात दिनों तक बिना कारण (बीमारी आदि) के यह सब नहीं करता था तो उसे वहीं प्रायश्चित्त करना पड़ता था जो ब्रह्मचारी रूप में सम्भोग करने पर किया जाता था। इस विषय में देखिए बौधायनधर्मसूत्र (१।२।५४), मनु (२।१८७) एवं विष्णुधर्मसूत्र (२८१५२। )
मिक्षा केवल अपने लिए नहीं मांगी जाती थी। ब्रह्मचारी भिक्षा लाकर गुरु को निवेदन करता था और गुरु के आदेश के अनुसार ही उसे ग्रहण करता था। गुरु की अनुपस्थिति में वह गुरुपत्नी या गुरु-पुत्र को निवेदन करता था। यदि ऐसा कोई न मिले तो वह ज्ञानी ब्राह्मणों से जाकर वैसा ही कहता था और उनके आदेशानुसार खाता था (आपस्तम्बधर्मसूत्र १११।३।३१-३५, मनु २१५१) । ब्रह्मचारी जूठा नहीं छोड़ता था और पात्र को धोकर रख
४५. भिक्षा च प्राससंमिता। बासश्च मयूराजपरिमाणः। प्रासमात्रा भवेद् भिक्षा पुष्कलं सच्चतुर्गुणम् । हन्तस्तु तैश्चतुभिः स्यादपं तत् त्रिगुणं भवेत् ॥ इति शातातपस्मरणात् । मिताक्षरा (पाशवल्पय १।१०८)।
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