________________
२९७
देता था। बचा हुआ शुद्ध भोजन गाड़ दिया जाता था, या बहा दिया जाता था या मुरु के शूद्र नौकर को दे दिया जाता था।
ब्रह्मचारी समिधा लाने एवं भिक्षा मांगने के अतिरिक्त गुरु के लिए पात्रों में जल भरता था, पुष्प एकत्र करता था, गोबर, मिट्टी, कुश आदि जुटाता था (मनु २०१८२)।
सन्ध्या उपनयन के दिन प्रातः सन्ध्या नहीं की जाती। जैमिनि के अनुसार गायत्री मन्त्र बतलाने के पूर्व कोई सन्ध्या नहीं होती। अतः उपनयन के दिन दोपहर से सन्ध्या का आरम्भ होता है। इस कार्य को सानान्यतः 'सन्ध्योपासना' या 'सन्ध्यावन्दन' या केवल सन्ध्या कहा जाता है। उपनयन के दिन केवल गायत्री मंत्र से ही सन्ध्या की जाती है। 'सन्ध्या' शब्द केवल रात एवं दिन के सन्धिकाल का द्योतक मात्र नहीं है, प्रत्युत यह प्रार्थना या स्तुति का भी, जो प्रातः या सायं की जाती है, द्योतक है। यह कभी-कभी दिन में तीन बार अर्थात् प्रातः, दोपहर एवं सायं होती थी। अत्रि ने लिखा है-"आत्मज्ञानी द्विज को सन्ध्या तीन बार करनी चाहिए। इन तीन सन्ध्याओं को क्रम -से गायत्री (प्रातःकालीन), सावित्री (मध्याह्नकालीन) एवं सरस्वती (सायकालीन) कहा जाता है, ऐसा योगयाज्ञवल्क्य का मत है।" सामान्यतः सन्ध्या दो बार ही (प्रातः एवं सायं) की जाती है (आश्वलायनगृह्यसूत्र ३७, आपस्तम्बधर्म० १११११३०१८, गौतम २।१७, मनु २६१०१, याज्ञवल्क्य ११२४-२५ आदि)।
___सभी के मत से प्रातः सूर्योदय के पूर्व से ही प्रातः सन्ध्या आरम्भ हो जानी चाहिए और जब तक सूर्य का बिम्ब दीख न पड़े तब तक चलती रहनी चाहिए और सायंकाल सूर्य के डूब जाने तथा तारों के निकल आने तक सन्ध्या होनी चाहिए। यह सर्वश्रेष्ठ सन्ध्या करने का समय कहा गया है, किन्तु गौण काल माना गया है सूर्योदय एवं सूर्यास्त के उपरान्त तीन घटिकाएँ। एक मुहूर्त (योगयाज्ञवल्क्य के अनुसार दो घटिकाओं अर्थात् दो घड़ियों) तक संध्या की अवधि होनी चाहिए। किन्तु मनु (४१९३-९४) के मत से जितनी तेर तक चाहें हम सन्ध्या कर सकते हैं, क्योंकि लम्बी सन्ध्या करने से ही प्राचीन ऋषियों को दीर्घ आयु, बुद्धि, यश, कीर्ति एवं आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त हो सकी थी।
___अधिकांश ग्रन्थकारों के अनुसार गायत्री का जप तथा अन्य पूत मन्त्र सन्ध्या में प्रमुख हैं तथा मार्जन आदि गौण हैं, किन्तु मनु (२।१०१) की व्याख्या में मेधातिथि ने जप को गौण तथा मन्त्र एवं आसन को प्रमुख स्थान दिया है। “सन्ध्या करनी चाहिए" का तात्पर्य है आदित्य नामक देवता का, जो मूर्य-मण्डल का द्योतक है, ध्यान करना तथा इस तथ्य का भी ध्यान करना कि वही बुद्धि या तेज उसके अन्तः में भी अवस्थित है। गांव के बाहर सन्ध्या के लिए उचित स्थान माना गया है (आपस्तम्बधर्म० ११११॥३०८, गौतम० २।१६, मानवगृह्य० १।२।२)। इस विषय में एकान्त स्थान (शांखायना ० २।९।१), नदी का सट या कोई पवित्र स्थान (बौधायनगृह्य० २।४।१) ही विशिष्ट रूप से चुना गया है। किन्तु अग्निहोत्रियों के लिए ऐसा कोई विधान नहीं है, क्योंकि उन्हें वैदिक क्रियाएँ एवं होम करना होता है और वह भी सूर्योदय के समय, अतः वे अपने घर में ही सन्ध्या कर सकते हैं। अपरार्क द्वारा उद्धृत वसिष्ठ के कथन से पता चलता है कि घर की अपेक्षा गौशाला या नदी के तट या विष्णु-मन्दिर या शिवालय के पास सन्ध्या करना क्रम से दस गुना, लाख गुना या असंख्य गुना (अनन्त गुना) अच्छा है। प्रातःकालीन सन्ध्या खड़े होकर तथा सायंकालीन बैठकर करनी चाहिए (आश्वलायनगृह्य० ३१७१६, शांखायनगृ० २।९।१ एवं ३, मनु २०१०२)। प्रातःकालीन सन्ध्या पूर्व दिशा की तथा सायंकालीन उत्तर-पश्चिम दिशा की ओर करनी चाहिए। सन्ध्या करने वाले को स्नान करना चाहिए, पवित्र स्थान पर कुश-आसन पर बैठना चाहिए, यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए एवं मौन रहना चाहिए (सन्ध्या करते समय बातचीत नहीं करनी चाहिए)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org