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________________ २२५ उपनयन के चौथे दिन एक कृत्य किया जाता था जिसका नाम था मेघा-जनन (बुद्धि की उत्पत्ति), जिसके द्वारा यह समझा जाता था कि ब्रह्मचारी की बुद्धि वेदाध्ययन के योग्य हो गयी है (आश्वलायनगृह्य मूत्र १॥२२॥ १८-१९), मारखाजगृह्य० (१।१०), मानवगृह्म० (१।२२।१७), काठकगृह्म० (४१३१८) एवं संस्कारप्रकाश (पृ० ४४४-४६) में भी यह कृत्य पाया जाता है। इस कृत्य के विस्तार में जाने की यहाँ कोई आवश्यकता नहीं है। उपनयन के समय प्रज्वलित अग्नि को समिधा दे-देकर तीन दिनों तक रखना पड़ता था। इसके उपरान्त साधारण अग्नि में समिषा ली जाती थीं। प्रति दिन प्रातः एवं सायं छः समिधा दी जाती थीं। इस विषय में बौधायनगृह्य० (२।५।५५-५७), आपस्तम्बगृहप० (२२२२), आश्वलायनगृह्य० (१।२०।१०-१२२११४), शांखायन गृहा। (२०१०), मनु (२।१८६), याज्ञवल्क्य (११२५), आपस्तम्बधर्मसूत्र (१।१।४।१७) आदि अवलोकनीय हैं। विशेष विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं है। समिधा के विषय में भी थोड़ी जानकारी आवश्यक है। समिधा एलाश की या किसी अन्य यज्ञवृक्ष को होनी चाहिए। इन वृक्षों के नाम दिये गये हैं-पलाश, अश्वत्थ, न्यग्रोध, प्लक्ष, वैकंकत, उदुम्बर, बिल्व, चन्दन, सरल, शाल, देवदारु एवं खदिर।" वायुपुराण ने सर्वप्रथम स्थान पलाश को दिया है, उसके उपरान्त क्रम से खदिर, शनी, रोहितक, अश्वत्य, अर्क या बेतस को स्थान दिया है। त्रिकाण्डमण्डन (२६८२-८४) ने इस विषय में कई नियम दिये हैं। इसके अनुसार समिधा के लिए पलाश एवं खदिर के वृक्ष सर्वश्रेष्ठ हैं और कोविदार, विभीतक, कपित्थ, करम, राजवृक्ष, शकद्रुम, नीप, निम्ब, करज, तिलक, श्लेष्मातक या शाल्मलि कभी भी प्रयोग में लाने योग्य नहीं हैं। अँगूठे से मोटी समिधा नहीं होनी चाहिए। इसे छीलना नहीं चाहिए। इसमें कोई कीड़ा लगा हुआ महीं होना चाहिए और न यह धुनी हुई होनी चाहिए। इसके टुकड़े नहीं होने चाहिए। यह एक प्रादेश (अमूठे से लेकर तर्जनी तक) से न बड़ी और न छोटी होनी चाहिए। इसमें पत्तियों नहीं होनी चाहिए और पर्याप्त मजबूत होनी चाहिए। भिक्षा आश्वलायनगृह्यसूत्र (१।२२१७-८) ने भिक्षा के विषय में कहा है कि ब्रह्मचारी को ऐसे पुरुष या स्त्री से मिक्षा मांगनी चाहिए जो निषेध न करे और मांगते समय ब्रह्मचारी को कहना चाहिए 'महोदय, भोजन दीजिए। अन्य धर्मशास्त्रकारों ने विस्तृत विवरण उपस्थित किये हैं। हिरण्यकेशिगृह्यसूत्र ने लिखा है-"आचार्य सर्व प्रथम दण्ड देता है, उसके उपरान्त भिक्षा-पात्र देकर कहता है-जाओ बाहर और भिक्षा मागलायो। पहले वह माता से, तब अन्य दयालु परों से मिक्षा मांगता है। बह भिक्षा मांगकर गुरु को लाकर देता है, कहता है, यह मिक्षा है। पुरु ग्रहण करता है, यह अच्छी मिक्षा है।" बौधायनगृह्यसूत्र (२।५।४७-५३) ने भी नियम विये है," यथा--ब्राह्मण ४३. पलाशाश्वत्वन्यप्रोपप्लवकतोद्भवाः। अश्वत्थोदुम्बरौ बिल्वश्चन्वनः सरलता। भालच देववासच खविरश्चेति यरियाः ॥ ब्रह्मपुराण (कृत्यरत्नाकर, १० ६१ में उवृत) ४. अवास्प रिक्त पात्रं प्रयच्छमाह । मातरमेवाने भिक्षस्वेति । समातरमेवाने भिवते । भवति भिक्षा देहाति बाह्मणो भिक्षते । भिक्षा भवति बेहीति राजन्यः । देहि भिक्षा भवतीति वैश्यः । तत्समाहत्याचार्याय प्राह भैक्षमिवमिति। तत्तुशमितीतरः प्रतिगृहनाति । (गौ० ० २२५४-५३)। . धर्म० २९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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