________________
२२४
धर्मशास्त्र का इतिहास अति प्राचीन विधि रही है। पारस्करगृह्यसूत्र (२३) के मत से सभी वर्ण गायत्री या सावित्री मन्त्र को क्रम से गायत्री, त्रिष्टुप् या जगती छन्द में पढ़ सकते हैं। गायत्री मन्त्र (ऋग्वेद ३।६२।१०) क्यों प्रसिद्ध हो गया, यह कहना कठिन है। बहुत सम्मव है, इस मन्त्र में बुद्धि (धी) की विभुता से विश्व के उद्भव की और जो संकेत मिलता है एवं इसमें जो महती सरलता पायी जाती है, इसी से इसे अति प्रसिद्धि प्राप्त हो गयी। गोपथब्राह्मण (१२३२-३३) ने गायत्री मन्त्र की व्याख्या कई प्रकार से की है। तैत्तिरीयारण्यक (२०११) में आया है कि “भूः, भुवः, स्वः नामक रहस्यमय शब्द वाणी के सत्य (सार) हैं, तथा गायत्री में सविता का अर्थ है वह जो श्री या महत्ता को उत्पन्न करता है।" अथर्ववेद (१९।७१।१) ने इसे 'वेदमाता' कहा है और स्तुति में कहा है-"यह स्तुति करने वाले को लम्बी आयु, यश, सन्तान, पशु आदि दे।" बृहदारण्यकोपनिषद् (१४।१-६), आपस्तम्बधर्मसूत्र (१।१।१।१०), मनु (२७७८३), विष्णुधर्मसूत्र (५५-११-१७), शंखस्मृति (१२), संवर्त (२१६-२२३), बृहत्पराशर (५) तथा अन्य ग्रन्थों में गायत्री की प्रभूत महत्ता गायी गयी है। पराशेर (५।१) ने इसे वेदमाता कहा है। गायत्री के जप से शुचिता प्राप्त होती है (शंखस्मृति १२।१२; मनु २।१०४; बौधायनधर्मसूत्र २।४।७-९; वसिष्ठधर्मसूत्र २६।१५) ।
ब्रह्मचारी के धर्म ब्रह्मचारियों के लिए कुछ नियम बने हैं, जिन्हें हम दो श्रेणियों में बाँट सकते हैं। जिनमें प्रथम प्रकार के वे नियम हैं जिन्हें ब्रह्मचारी अल्प काल तक ही मानते हैं और दूसरे प्रकार के वे नियम, जो छात्र-जीवन तक माने जाते हैं। आश्वलायनगृह्यसूत्र (११२२११७) के अनुसार ब्रह्मचारी को उपनयन के उपरान्त तीन रातों, या बारह रातों, या एक वर्ष तक क्षार, लवण नहीं खाना चाहिए और पृथ्वी पर शयन करना चाहिए। यही बात बौधायन गृ० (२।५।५५) में भी पायी जाती है (यहाँ तीन दिनों तक प्रज्वलित अग्नि रखने का भी विधान है)। इस विषय में भारद्वाजगृ० (१।१०), पारस्करगृ० (२।५), खादिरगृ० (२।४।३३), हिरण्यकेशिगृ० (१।८।२), मनु (२।१०८ एवं १७६) आदि स्थल अवलोकनीय हैं, जहाँ पर कुछ विभिन्नताओं के साथ ब्रह्मचारियों के नियम बताये गये हैं। मनु (२।१०८ एवं १७६) के अनुसार अग्नि में समिधा डालना, भिक्षा मांगना, भू-शयन, गुरु के लिए काम करना, प्रति दिन स्नान करना, देवोंऋषियों-पितरों का तर्पण करना आदि ब्रह्मचारियों का धर्म है। ये कार्य अल्पकालीन माने गये हैं।
पूर्ण छात्र-जीवन के नियम हम शतपथब्राह्मण (११।५।४।१-१७), आश्वलायनगृह्य० (१।२२।२), पारस्करगृह्य० (२।३), आपस्तम्बमन्त्रपाठ (२।६।१४), काठकगृह्य० (४१।१७) आदि में पा सकते हैं। ये कार्य हैं-आचमन, गुरुशुश्रूषा, वाक्संयम (मौन) समिधाधान। सूत्रों एवं स्मृतियों में इन नियमों के पालन की विधियाँ भी पायी जाती हैं (गौतम २।१०-४०, शांखायनगृ० २।६।८, गोभिल० ३।१।२७, खादिर० २।५।१०-१६, हिरण्य० ८।१-७, आपस्तम्बधर्म० १३१॥३॥११-१ एवं २।७।३०, बौधायनधर्म० ११२७, मनु २।४९-२४९, याज्ञवल्क्य १।१६. ३२ आदि)। अग्निपरिचर्या (अग्नि-होम), भिक्षा, सन्ध्योपासन, वेदाध्ययन का समय एवं विधि, कुछ खाद्यों एवं पेयों एवं गीतों का वर्जन, गुरुशुश्रूषा (गुरु तथा गुरुकुल एवं अन्य गुरुजनों की सेवा) एवं ब्रह्मचारी के अन्य व्रतों के विषय में ही नियम एवं विधियां बतायी गयी हैं। कुछ अन्य बातों पर विचार करने के उपरान्त इनका वर्णन हम कुछ विस्तार के साथ करेंगे।
४२. गायच्या ब्राह्मणमसृजत त्रिष्टुभा राजन्यं जगत्या वैश्यं न केनचिच्छन्दसा शूमित्यसंस्कार्यो विलायते। वसिष्ठ ४॥३॥
www.jainelibrary.org
For Private & Personal Use Only
Jain Education International