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उपनयन
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आचार्य के सन्निकट ले जाना, (२) वह संस्कार या कृत्य जिसके द्वारा बालक आचार्य के पास ले जाया जाता है। पहला अर्थ आरम्भिक है, किन्तु कालान्तर में जब विस्तारपूर्वक यह कृत्य किया जाने लगा तो दूसरा अर्थ भी प्रयुक्त हो गया। आपस्तम्बधर्मसूत्र (१।१।१।१९) ने दूसरा अर्थ लिया है। उसके अनुसार उपनयन एक संस्कार है जो उसके लिए किया जाता है, जो विद्या सीखना चाहता है; "यह ऐसा संस्कार है जो विद्या सीखने वाले को गायत्री मन्त्र सिखाकर किया जाता है।" स्पष्ट है, उपनयन प्रमुखतया गायत्री-उपदेश (पवित्र गायत्री मन्त्र का उपदेश) है। इस विषय में जैमिनि० (६१३३५) भी द्रष्टव्य है।'
ऋग्वेद (३।८।४) से पता चलता है कि गृह्यसूत्रों में वर्णित उपनयन संस्कार के कुछ लक्षण उस समय भी विदित थे। वहाँ एक युवक के समान युप (बलि-स्तम्भ) की प्रशंसा की गयी है।..."यहाँ युवक आ रहा है, वह मली भांति सज्जित है (युवक मेखला द्वारा तथा यूप रशना द्वारा); वह, जब उत्पन्न हुआ, महत्ता प्राप्त करता है; हे चतुर ऋषियो, आप अपने हृदयों में देवों के प्रति श्रद्धा रखते हैं और स्वस्थ विचार वाले हैं, इसे ऊपर उठाइए।" यहाँ "उन्नयन्ति" में वही धातु है, जो उपनयन में है। बहुत-से गृहासूत्रों ने इस मन्त्र को उद्धृत किया है, यथा--आश्वलायन० (१।२०१८), पारस्कर० (२।२) । तैत्तिरीय संहिता (३।१०।५) में तीन ऋणों के वर्णन में 'ब्रह्मचारी' एवं 'ब्रह्मचर्य' शब्द आये हैं-"ब्राह्मण जब जन्म लेता है तो तीन वर्गों के व्यक्तियों का ऋणी होता है; ब्रह्मचर्य में ऋषियों के प्रति (ऋषी होता है), यज्ञ में देवों के प्रति तथा सन्तति में पितरों के प्रति ; जिसको पुत्र होता है, जो यज्ञ करता है और जो ब्रह्मचारी रूप में गुरु के पास रहता है, वह अनृणी हो जाता है।"
___ उपनयन एवं ब्रह्मचर्य के लक्षणों पर प्रकाश वेदों एवं ब्राह्मण साहित्य में उपलब्ध हो जाता है। अथर्ववेद (१११७।१-२६) का एक पूरा सूक्त ब्रह्मचारी (वैदिक छात्र) एवं ब्रह्मचर्य के विषय में अतिशयोक्ति की प्रशंसा से पूर्ण है।
४. संस्कारस्य तदर्थत्वात् विद्यायां पुरुषभुतिः । जैमिनि ॥१॥३५; 'विधायामेवंषा श्रुतिः (वसन्ते बाह्मणमुपनयीत)। उपनयनस्य संस्कारस्य तबर्थत्वात् । विद्यार्थमुपाध्यायस्य समीपमानीयते नाष्टायं नापि कटं कुण्यं वा पीम् । दृष्टायमेव सैषा विद्यायां पुरुषभुतिः । कथमवगम्यते । आचार्यकरणमेतदवगम्यते। कुतः। आत्मनेपददर्शनात् ।' शबर।
५. युवा सुवासाः परिवीत आगात् स उ भेयान्भवति जायमानः। तं धीरामः कवय उप्रयन्ति स्थाप्यो मनसा देवयन्तः॥ ऋग्वेद, ३।८।४। आश्वलायनगृहा० (१३१९८) के अनुसार बच्चे को अलंकृत किया जाता है और नये वस्त्र दिये जाते हैं 'अलंकृतं कुमारं... अहतेन दाससा संबीत'...आदि; एवं देखिए ११२०८-'युवा सुवासाः परिवीत आगादित्यनेनं प्राक्षिणमावर्तयेत्।'
६. मायमानो हब ब्राह्मणस्त्रिभिभवां जायते ब्रह्मचर्येण ऋषिभ्यो यमेन देवेभ्यः प्रजया पितम्य एष वा अनुलो यः पुत्री यज्या ब्रह्मचारिवासी । तै० संहिता ६।३।१०।५।
७. ब्रह्मचारीष्णश्चरति रोदसी उभे तस्मिन्देवाः समनसो भवन्ति । स दाधार पृथिवीं दिवं च स आचार्य तपसा पिपति ॥ अथर्ववेद ११७१॥ गोपथब्राह्मण (२११) में यह श्लोक व्याख्यायित है। आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिण हन्ते गर्भमन्सः । अथर्ववेव ११७॥३; यही भावना आपस्तम्बमर्मसूत्र (१३१३१३१६-१८) में भी पायी जाती है, यथासहि विद्यातस्तं जनयति । तच्छेष्ठं जन्म । शरीरमेव मातापितरौ जनयतः । शतपथब्राह्मण (१११५४१२) से मिलाइए-आचार्यो गीभवति हस्तमाकाम रक्षिणम् । तृतीयस्यां स जायते सावित्र्या सह ब्राह्मण :॥ ब्रह्मचार्येति समिया समिटः काणं वसानो दीक्षितो वीर्घश्मयः। अथर्ववेद ११३७६।।
धर्म. २७
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