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धर्मशास्त्र का इतिहास तैत्तिरीय ब्राह्मण (३६१०१११) में भारद्वाज के विषय में एक गाथा है, जिसमें कहा गया है कि भरद्वाज अपनी मायु के तीन भागों (७५ वर्षो) तक ब्रह्मचारी रहे। उनसे इन्द्र ने कहा था कि उन्होंने इतने वर्षों तक वेदों के बहुत ही कग अंश (३ पर्वतों की ढेरी में से ३ मुठियाँ) सीखे हैं, क्योंकि वेद तो असीम है। मनु के पुत्र नामानेदिष्ठ की गाथा से पता चलता है कि वे अपने गुरु के यहाँ ब्रह्मचारी रूप से रहते थे, तभी उन्हें पिता की सम्पत्ति का कोई भाग नहीं मिला (ऐतरेय ब्राह्मण २२९ एवं तैत्तिरीय ब्राह्मण ३।१।९।१५)। गृह्यसूत्रों में वर्णित ब्रह्मचर्य-जीवन के विषय में शतपप-ग्राह्मण (१११५।४) में भी बहुत-कुछ प्राप्त होता है, जो बहुत ही संक्षेप में यों है-बालक कहता है-'मैं ब्रह्मचर्य के लिए आया और'मझेब्रह्मचारीहोजाने दीजिए।' गरु पूछता है-'तुम्हारा नाम क्या है?' तब गुरु (आचार्य) उसे पास में ले लेता है (उप नयति)। तब गुरु बच्चे का हाथ पकड़ लेता है और कहता है-'तुम इन्द्र के ब्रह्मचारी हो, अनि तुम्हारे गुरु हैं, मैं तुम्हारा गुरु हूँ' (यहाँ पर गुरु उसका नाम लेकर सम्बोधित करता है)। तब वह बालक को भूतों को दे देता है, अर्थात् भौतिक तत्त्वों में नियोजित कर देता है। गुरु शिक्षा देता है 'जल पिओ, काम करो (गुरु के घर में), अग्नि में समिधा डालो, (दिन में) न सोओ।' वह सावित्री मन्त्र दुहराता है। पहले बच्चे के आने के एक वर्ष उपरान्त सावित्री का पाठ होता था, फिर ६ मासों, २४ दिनों, १२ दिनों, ३ दिनों के उपरान्त । किन्तु ब्राह्मण बच्चे के लिए उपनयन के दिन ही पाठ किया जाता था, पहले प्रत्येक पाद अलग-अलग फिर आधा और तब पूरा मन्त्र दुहराया जाता था। ब्रह्मवारी हो जाने पर मधु खाना वर्जित हो जाता था (शतपथब्राह्मण ११।५।४।१-१७)।
शतपथब्राह्मण (५।१५।१७) एवं तैत्तिरीयोपनिषद् (१।११) में 'अन्तेवासी' (जो गुरु के पास रहता है) शब्द आया है। शतपथब्राह्मण (११॥३।३।२) का कथन है "जो ब्रह्मचर्य ग्रहण करता है, वह लम्बे समय की यज्ञावधि ग्रहण करता है।" गोपयब्राह्मण (२॥३), बौधायनधर्मसूत्र (१।२।५३) आदि में भी ब्रह्मचर्य-जीवन की ओर संकेत मिलता है।
पारिक्षित जनमेजय हंसों (आहवनीय एवं दक्षिण नामक अग्नियों) से पूछते हैं-पवित्र क्या है ? तो वे दोनों उत्तर देते हैं ब्रह्मचर्य (पवित्र) है (गोपथ० २।५) । गोपथ ब्राह्मण (२।५) के अनुसार सभी वेदों के पूर्ण पाण्डित्य के लिए ४८ वर्ष का छात्र-जीवन आवश्यक है। अतः प्रत्येक वेद के लिए १२ वर्ष की अवधि निश्चित सी थी। ब्रह्मचारी की मिक्षा-वृत्ति, उसके सरल जीवन आदि पर गोपथब्राह्मण प्रभूत प्रकाश डालता है (गोपथब्राह्मण २७)।
उपर्युक्त विवेचन से ज्ञात होता है कि आरम्भिक काल में उपनयन अपेक्षाकृत पर्याप्त सरल था। भावी विद्यार्थी समिधा काष्ठ के साथ (हाथ में लिये हुए) गुरु के पास आता था और उनसे अपनी अभिकांक्षा प्रकट कर ब्रह्मचारी रूप में उनके साथ ही रहने देने की प्रार्थना करता था। गृह्यसूत्रों में वर्णित विस्तृत क्रिया-संस्कार पहले नहीं प्रचलित थे। कठोपनिषद् (१।१।१५), मुण्डकोपनिषद् (२०१७), छान्दोग्योपनिषद् (६।१।१) एवं अन्य उपनिषदों में ब्रह्मचर्य शब्द का प्रयोग हुआ है। छान्दोग्य एवं बृहदारण्यक सम्भवतः सबसे प्राचीन उपनिषद् हैं। ये दोनों मूल्यवान् वृत्तान्त उपस्थित करती हैं। उपनिषदों के काल में ही कुछ कृत्य अवश्य प्रचलित थे, जैसा कि छान्दोग्य० (५।११।७) से ज्ञात होता है। अब प्राचीनशाल औपमन्यव एवं अन्य चार विद्यार्थी अपने हाथों में समिधा लेकर अश्वपति केकय के पास
वीर्षसत्रं वा एष उपति यो ब्रह्मचर्यमुपैति । शतपथ० १३३।३।२। बौधायनधर्मसूत्र (१२२२५२) में भी यह उड़त है। "अपोऽशान" शब्द का भोजन करने के पूर्व एवं अन्त में "अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा" एवं "अमृतापिधानमसि स्वाहा" नामक शब्दों के साथ जलाचमन की ओर संकेत है। देखिए संस्कारतत्त्व पृ० ८९३ । ये दोनों मन्त्र आपस्तम्बीय मन्त्रपाठ (२२१०१३-४) में आये हैं।
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