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________________ अध्याय ७ उपनयन 'उपनयन' का अर्थ है "पास या सन्निकट ले जाना।" किन्तु किसके पास ले जाना? सम्भवतः आरम्भ में इसका तात्पर्य था "आचार्य के पास (शिक्षण के लिए) ले जाना।" हो सकता है। इसका तात्पर्य रहा हो नवशिष्य को विद्यार्थीपन की अवस्था तक पहुँचा देना। कुछ गृह्यसूत्रों से ऐसा आभास मिल जाता है, यथा हिरण्यकेशि० (१।५।२) के अनुसार; तब गुरु बच्चे से यह कहलवाता है “मैं ब्रह्मचर्य को प्राप्त हो गया हूँ। मुझे इसके पास ले चलिए। सविता देवता द्वारा प्रेरित मुझे बहाचारी होने दीजिए।'' मानव० एवं काठक० ने 'उपनयन' के स्थान पर 'उपायन' शब्द का प्रयोग किया है। काठक के टीकाकार आदित्यदर्शन ने कहा है कि उपानय, उपनयन, मौजीबन्धन, बटुकरण, व्रतबन्ध समानार्थक हैं। इस संस्कार के उद्गम एवं विकास के विषय में कुछ चर्चा हो जाना आवश्यक है, क्योंकि यह संस्कार सब संस्कारों में अति महत्त्वपूर्ण माना गया है। उपनयन संस्कार का मूल भारतीय एवं ईरानी है, क्योंकि प्राचीन जोरॉस्ट्रिएन (पारसी) शास्त्रों के अनुसार पवित्र मेखला एवं अधोवसन (लुंगी) का सम्बन्ध आधुनिक पारसियों से भी है। किन्तु इस विषय में हम प्रवेश नहीं करेंगे। हम अपने को भारतीय साहित्य तक ही सीमित रखेंगे। ऋग्वेद (१०।१०९१५) में ब्रह्मचारी' शब्द आया है। 'उपनयन' शब्द दो प्रकार से समझाया जा सकता है--(१) (बच्चे को) १. अर्थनमभिव्याहारयति । ब्रह्मचर्यमाणामुप मा नयत्व ब्रह्मचारी भवानि देवेन सवित्रा प्रसूतः। हिरण्यकेशि० (१२५२); ब्रह्मचर्यमागामिति वाचयति ब्रह्मचार्यसानीति च। पारः २।२; और देखिए गोभिल० (२।१०।२१)। "ब्रह्मचर्यमागाम्" एवं "ब्रह्मचार्यसानि" शतपय० (१११५।४।१) में भी आये हैं; और देखिए आपस्तम्बीय मन्त्रपाठ (२।३।२६) "ब्रह्मचर्य...प्रसूतः।" याज्ञवल्क्य (१३१४) को व्याख्या में विश्वरूप ने लिखा है-"वेदाध्ययनायाचार्यसमीपे नयनमुपनयनं तदेवोपनायनमित्युक्तं छन्दोनुरोधात् । तदर्थं वा कर्म।" हिरण्यकेशि० (१११११) पर मातृवत्त को भी देखिए। २. ब्रह्मचारी चरति वेविषद् विषः स देवानां भवत्येकमंगम् । तेन जायामन्वविन्दद् बृहस्पतिः सोमेन नीतां गह न देवाः ॥ ऋग्वेद १०।१०९१५; अथर्ववेद ५।१७।५। सोम की ओर संकेत से ऋग्वेद (१०३८५।४५)का 'सोमो बवद् गन्धर्वाय' स्मरण हो आता है। किसी मानवीय वर से परिणय होने के पूर्व प्रत्येक कुमारी सोम, गन्धर्व एवं अग्नि के रक्षण के भीतर कल्पित मानी गयी है। ३. तत्रोपनयनशब्दः कर्मनामधेयम्।...तच्च यौगिकमुद्भिद्न्यायात् । योगश्च भावव्युत्पत्त्या करणव्युत्पत्या वेत्याह भारुचिः। स यथा-उपसमीपे आचार्यादीनां बटोनयनं प्रापणमुपनयनम् । समीपे आचार्यादीनां नीयते बटुर्यन तफ्नयनमिति वा।...तत्र च भावव्युत्पत्तिरेव साधीयसीति गम्यते। श्रौतार्थविधिसंभवात् । संस्कारप्रकाश, Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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