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धर्मशास्त्र का इतिहास पारस्कर० (२१), मनु (२०३५), वैखानस० (३।२३) ने लिखा है कि इसे पहले या तीसरे वर्ष कर देना चाहिए। आश्वलायन एवं वाराह के अनुसार इसे तीसरे वर्ष या कुटुम्ब की परम्परा के अनुसार जब हो, कर डालना चाहिए। पारस्कर ने भी कल-परम्परा की बात उठायी है। याज्ञवल्क्य ने भी किसी निश्चित समय की बात न कहकर कलपरम्परा को ही मान्यता दी है। यम (अपरार्क द्वारा उद्धृत) ने दूसरे या तीसरे वर्ष की व्यवस्था दी है, किन्तु शंखलिखित ने तीसरा या पाँचवाँ वर्ष ठीक माना है। संस्कारप्रकाश में उद्धृत षड्गुरुशिष्य एवं नारायण (आश्वलायनगृह्यसूत्र १।१७।१ के टीकाकार) ने इसे उपनयन के समय करने को कहा है। तीन वर्ष वाले मत के लिए निम्न धर्मशास्त्रकार द्रष्टव्य हैं-आश्वलायन० (१।१७।१-१८), आपस्तम्ब० (१६॥३-११), गोभिल (२।९।१-२९), हिरण्यकेशि० (२।६।१-१५), काठक० (४०), खादिर० (२१३।१६-३३), पारस्कर.० (१।२), शांखायन० (११२८), बौधायन० (२।४), मानव० (११२१) एवं वैखानस० (४।२३)।
यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि यह संस्कार वैदिक काल में होता था कि नहीं। भारद्वाजगृह्यसूत्र (१२२८) एवं मनु (२।३५) ने एक वैदिक मन्त्र (ऋ० ४।७५।१७ या तैत्तिरीय संहिता ४।६।४।५) उद्धृत करके कहा है कि इसमें चौलकर्म की ओर स्पष्ट संकेत है।
- इस कृत्य में प्रमुख कार्य है बच्चे के सिर के केश काटना। इसके साथ होम, ब्राह्मण-भोजन, आशीर्वचनग्रहण, दक्षिणादान आदि कृत्य किये जाते हैं। कटे हुए केश गुप्त रूप से इस प्रकार हटा दिये जाते हैं कि कोई उन्हें पा नहीं सके।
इस संस्कार के लिए शुभ मुहूर्त निकाला जाता है। इसका व्यवस्थित एवं विस्तृत वर्णन आश्वलायन, गोभिल, वाराह एवं पारस्कर (२।१) में पाया जाता है। निम्नलिखित सामग्रियों की आवश्यकता होती है (१) अग्नि के उत्तर चार बरतनों में अलग-अलग चावल, जौ, उरद एवं तिल रखे जाते हैं (आश्व० १।१७।२)। गोमिल (२।९।६-७) के मत से ये बरतन केवल पूर्व दिशा में रखे जाते हैं। गोभिल एवं शांखायन के मतानुसार अन्त में ये अन्न-सहित नाई को दे दिये जाते हैं । (२) अग्नि के पश्चिम माता बच्चे को गोद में लेकर बैठती है। दो बरतन, जिनमें से एक में बैल का गोबर तथा दूसरे में समी की पत्तियाँ भरी रहती हैं, पश्चिम में रख दिये जाते हैं। (३) माता के दाहिने पिता कुश के २१ गुच्छों के साथ, जिन्हें ब्रह्मा पुरोहित भी पकड़े रह र कता है, बैठता है।" (४) गर्म या शीतल जल । (५) छुरा या उदुम्बर लकड़ी का बना छुरा। (६) एक दर्पण। गोमिल एवं खादिर के मत से नाई, गर्म जल, दर्पण, छुरा एवं कुश आदि अग्नि के दक्षिण तथा बैल का गोबर एवं तिलमिश्रित चावल अग्नि के उत्तर रखे जाने चाहिए। आश्वलायन० पारस्कर०, काठक एवं मानव के मत से छुरा लोहे का होना चाहिए।
। कतिपय सूत्रों ने इस संस्कार के विभिन्न कृत्यों में विभिन्न मन्त्रों के उच्चारण की वातें की हैं, जिन्हें हम स्थानाभाव से यहाँ उद्धृत करने में असमर्थ हैं। आरम्भ में पिता ही क्षौरकर्म करता है, क्योंकि कुछ सूत्रों ने, यथा बौधायन एवं शांखायन ने इस उत्सव में नाई का नाम नहीं लिया है। किन्तु आगे चलकर नाई भी सम्मिलित कर लिया गया
१८. अथास्य सांवत्सरिकस्य चौरं कुर्वन्ति यषि यथोपझं वा। विज्ञायते च। यत्र बाणाः संपतन्ति कुमारा विशिला इव । इति बहुशिला इवेति । भारद्वाज० १०२८।
१९. चार बार पाहिने और तीन बार बायें सिर-भाग में केश काटे जाते हैं और प्रति बार तीन कुश-गुच्छों की आवश्यकता पड़ती है, अतः २१ गुच्छों की संख्या दी गयी है।
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