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नामकरण संस्कार
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वैदिक साहित्य में सैकड़ों नाम मिलते हैं, किन्तु उनमें कोई भी सीधे ढंग से नक्षत्रों से सम्बन्धित नहीं जँचता । शतपथब्राह्मण (६।२।१।३७) में आषाढ सौश्रोमतेय ( अषाढ एवं सुश्रोमता का पुत्र ) नाम आया है। यहाँ सम्भवतः अषाढ अषाढा नक्षत्र से सम्वन्धित है । लगता है, ब्राह्मण-काल में नाक्षत्र नाम गृह्यनाग थे, कालान्तर में नाक्षत्र नाम गुह्य न रह सके और व्यवहार में आने लगे। ईसा की कई शताब्दियों पहले नाक्षत्र नाम प्रचलित हो चुके थे। पाणिनि ( जो ई० पू० ३०० के पश्चात् नहीं आ सकते ) ने इस विषय में कई नियम बतायें हैं ( ४१३/३४-३७ एवं ७।३।१८ ) । उन्होंने श्रविष्ठा, फाल्गुनी, अनुराधा, स्वाति तिप्य, पुनर्वसु, हस्त, अबाबा एवं बहुला ( कृतिका) से बने नामों की चर्चा की है, यथा श्राविष्ठ, फाल्गुन आदि । रुद्रदामन् के जूनागढ़ अभिलेख ( १५० ई०) में चन्द्रगुप्त मौर्य के साले का नाम पुष्यगुप्त है। स्पष्ट है, ई० पू० चौथी शताब्दी में नक्षत्राश्रय नाम रखे जाते थे। महाभाष्य में भी तिष्य, पुनर्वसु, चित्रा, रेवती, रोहिणी नामक नाम हैं । महाभाष्य में शुंग वंश के संस्थापक पुष्यमित्र का भी नाम लिया गया है। बौद्ध लोग भी नाक्षत्र नाम रखते थे, यथा मोग्गलि पुत्त तिस्स (यहाँ गोत्र नाम एवं नाक्षत्र नाम दोनों प्रयुक्त हुए हैं), परिव्राजक पोट्ठपदा ( प्रोष्ठपदा), अषाड, फगुन, स्वातिगुत्त, सरखित (सांची अभिलेख ) । आगे चलकर भी नाक्षत्र नाम पाये जाते हैं। कभी-कभी नक्षत्रदेवता से सम्बन्धित नाम भी रखे जाते थे, यथा आग्नेय ( कृत्तिका नक्षत्र में जन्म के कारण; कृत्तिका के देवता है अग्नि), मैत्र ( अनुराधा नक्षत्र में उत्पन्न होने के कारण ) । आजकल सीधे ढंग से देवताओं एवं अवतारों के नाम रखे जाते हैं, यथा रामचन्द्र, नृसिंहदेव, शिवशंकर, पार्वती, सीता आदि ।
मध्यकाल के धर्मशास्त्र-ग्रन्थों एवं ज्योतिष-ग्रन्थों में नक्षत्रों से सम्बन्धित दूसरे प्रकार के नाम भी आते है। २७ नक्षत्रों में से प्रत्येक चार पादों में विभाजित कर दिया जाता है और प्रत्येक पाद के लिए एक विशिष्ट अक्षर दे दिया गया है ( यथा चू, चे, चो एवं ला अश्विनी के लिए हैं)। इन पादों में जन्म लेने पर नाम इन्हीं अक्षरों से आरम्भ होते हैं, यथा-चूड़ामणि, चेदीश, चोलेश तथा लक्ष्मण । ये नाम गुह्य नाम हैं और आज भी उपनयन के समय ब्रह्मचारी के कान में या सन्ध्या-पूजा में उच्चरित होते हैं ।
आधुनिक काल के संस्कारप्रकाश ऐसे ग्रन्थों में चार प्रकार के नाम वर्णित हैं, यथा--- देवतानाम, भासनाम, नाक्षत्र नाम एवं व्यावहारिक नाम । पहले नाम से स्पष्ट है कि यह नामधारी उस देवता का भक्त है। निर्णयसिन्धु ने मास-सम्बन्धी १२ नामों के लिए एक श्लोक का उद्धरण दिया है, जिसमें जन्म के महीने को प्रमुखता दी गयी है । महीनों का आरम्भ मार्गशीर्ष या चैत्र से होता है। वराहमिहिर की बृहत्संहिता में विष्णु के बारह नाम बारह
मघा - पितर, फल्गुनी (पूर्वा) - अर्यमा, फल्गुनी (उत्तरा ) - भग, हस्त - सविता, चित्रा-त्वष्टा, मिष्ट्या (स्थाति, अथर्ववेद में) - वायु, विशाखे - इन्द्राग्नी, अनूराधा (अनुराधा) - मित्र, ज्येष्ठा (रोहिणी, तं० सं० में)-इन्द्र, मूल ( विचूतौ तं० सं० में) - पितर (निर्ऋति, ब्राह्मणों, शांखायन गृह्यसूत्र में एवं प्रजापति), पाठा (पूर्ण) - आप:, अषाढा (उत्तरा) - विश्वेदेव, श्रोणा (अथर्ववेद में श्रवण) - विष्णु, श्रविष्ठा (धनिष्ठा) - वसु-वरुण ( तै० सं० में इन्द्र ), प्रोष्ठपदा (पूर्वा भाद्रपदा) - अजएकपाद्, प्रोष्ठपाद (उत्तरा भाद्रपदा ) - अहिर्बुध्य, रेवती-पूष्ण, अश्वयुक् ( अश्विनी) - अश्विनौ, अपभरणी ( भरणी, अथर्ववेद में ) - यम ।
११. स्मृतिसंग्रहे - कृष्णोऽनन्तो ऽच्युतश्चक्री वैकुण्ठोऽथ जनार्दनः । उपेन्द्रो यज्ञपुरुषो वासुदेवस्तथा हरिः ॥ योगीशः पुण्डरीकाक्षो मासनामान्यनुक्रमात् ॥ अत्र मार्गशीर्षादिश्चैत्रः दिर्वा क्रम इति मदनरत्ने । निर्णयसिन्धु, परिच्छेद ३ पूर्वाषं ।
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