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________________ १९८ धर्मशास्त्र का इतिहास (५) कुछ गृह्यसूत्रों ने, यथा पारस्कर, गोभिल, शांखायन, बैजवाप, वाराह आदि ने लिखा है कि नाम 'कृत्' से बनना चाहिए न कि तद्धित से। (६) आपस्तम्ब एवं हिरण्यकेशि० का कहना है कि नाम में 'सु' उपसर्ग होना चाहिए, यथा--सुजात, सुदर्शन, सुकेशा। (७) बौधायन० के अनुसार नाम किसी ऋषि, देवता या पूर्वपुरुष से निःसृत होना चाहिए। मानवगृह्यसूत्र ने देवता का नाम वजित माना है, किन्तु देवता के नाम से निर्मित वासिष्ठ, नारद आदि नामों को स्वीकार किया है। विष्णु, शिव आदि नाम भी प्रचलित रहे हैं। मिताक्षरा (याज्ञ० १।१२) में शंख का उद्धरण है, जिससे पता चलता है कि नाम का सम्बन्ध कुलदेवता से होना चाहिए। आधुनिक काल में बहुधा लोगों के नाम देवताओं, शूरवीरों या देवताओं के अवतारों से सम्बन्धित पाये जाते हैं। किन्तु वैदिक काल में मनुष्यों के नाम देवताओं के नामों से सम्बन्धित नहीं पाये जाते। दो-एक अपवाद भी हैं, यथा भृगु (तैत्तिरीयोपनिषद्, ३।१) ने अपने पिता वरुण से विद्याध्ययन किया था, सौर्यायणि गार्ग्य का नाम सूर्य से सम्बन्धित है। देवताओं से निःसृत नाम अवश्य पाये जाते हैं, यथा इन्द्रोत (इन्द्र +ऊत, रक्षित), इन्द्रद्युम्न आदि। महाभाष्य में उल्लिखित नाम, यथा देवदत्त, यज्ञदत्त, वायुदत्त, विष्णुमित्र, बृहस्पतिदत्तक, (बृहस्पतिक), प्रजापतिदत्तक (प्रजापतिक), भानुदत्तक (मानुक) मानवगृह्यसूत्र के नियम का प्रतिपादन करते हैं। (८) बौधायन, पारस्कर, गोभिल एवं महाभाष्य द्वारा उद्धृत याज्ञिकों के नियम के अनुसार बच्ने का नाम पिता के किसी पूर्वज का ही होना चाहिए। किन्तु पिता का नाम पुत्र का नाम नहीं होना चाहिए (मानवगृह्यसूत्र, १।१८)। (९) पारस्कर एवं मानव को छोड़कर सभी गृह्यसूत्र यह स्वीकार करते हैं कि गुह्य नाग सोप्यन्तीकर्म में (गोभिल एवं खादिर के मत से), जन्म के समय (आश्वलायन एवं काठक के मन से) तथा नामकरण के समय १०वें या १२वें दिन (आपस्तम्ब, बौधायन एवं भारद्वाज के मत से) रखा जाना चाहिए। हिरण्यके शि० एवं वैखानस के मतानुसार गुह्य (गुप्त) नाम जन्म के समय के नक्षत्र से सम्बन्धित होना चाहिए। आश्वलायनगृह्यसूत्र के अनुसार गुप्त नाम अभिवादनीय (जो उपनयन तक केवल माता-पिता को ज्ञात रहता है, जिसे श्रद्धापूर्वक प्रणाम करते समय बच्चा स्वयं प्रयोग में लाता है) कहा जाता है; किन्तु ऐसा क्यों, इस पर प्रकाश नहीं मिलता। गोभिल. खादिर, वाराह एवं मानव ने अभिवादनीय नाम की चर्चा की है। गोभिल के मत मे यह नाम उपनयन के समय आचार्य द्वारा दिया जाना चाहिए और जन्म के समय के नक्षत्र या उस नक्षत्र के देवता से सम्बन्धित होना चाहिए। कुछ लोगों के मत से, जैसा कि गोभिल ने लिखा है, अभिवादनीय नाम बच्चे के गोत्र में गम्बन्धित होना चाहिए, यथा गार्य, शाण्डिल्य, गौतम आदि। वैदिक यज्ञों में नाक्षत्र नाम की महत्ता थी।" १०. नक्षत्रदेवता होता एताभिर्यज्ञकर्मणि । यजमानस्य शास्त्रज्ञ म नक्षत्रजं स्मृतम् ॥ वेदांगज्योतिष (ऋ०), श्लोक २८। वैदिक साहित्य एवं वेदांगज्योतिष में नक्षत्रों की गणना कृत्तिका से अपभरणी तक होती है, न कि अश्विनी से रेवती तक, जैसा कि माध्यमिक एवं आधुनिक काल में पाया जाता है। नक्षत्र और नक्षत्रदेवता ये हैं-- (अथर्ववेद, १९।७।२५, तैत्तिरीय संहिता, ४।४।१० एवं तैत्तिरीय ब्राह्मण, ११५।१ तथा ३३१११ में प्राचीनतम तालिका मिलती है) कृत्तिका-अग्नि, रोहिणी-प्रजापति, मृगशीर्ष या मृगशिरः (इन्वका, तै० सं० में)-सोम, आर्द्रा (ले० सं० में बाहु)-रुद्र, पुनर्वसु-अदिति, तिष्य (प्रष्य, अथर्ववेद में)-बृहस्पति, आश्रेषा (त० सं० में आश्लेषा)-सर्प, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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