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नामकरण संस्कार
अपने नाम तथा अपने देश के नाम से उल्लिखित हैं, यथा कशु चंद्य (ऋ० ८।५।३७), भीम वैदर्भ (ऐत० ३५४८), दुर्मुख पाञ्चाल (ऐत. ३९।२३), जनक वैदेह. अजातशत्रु काश्य (बृहदारण्यकोपनिषद् २११११)। कहीं-कही माता के नाम से भी नामकरण हो गया है, दीर्घतमा मामतेय (ऋ० १११५८१६), कुन्स आर्जुनेय (अर्जुनी का पुत्र ऋ० ४।२६।१, ७।१९।२, ८1१।११), कक्षीवान् औशिज (उशिक् नामक स्त्री का पुत्र, ऋ० १११८११, वाजसनेयी संहिता, ३।२८), प्रह्लाद कायाघव (कयाधू का पुत्र. तैत्ति० ११५.१०), महिदास ऐतरेय (इतरा का पुत्र, छान्दोग्योपनिषद् ३॥१६॥७) । वृहदारण्यकोपनिषद् के अन्त में ४० ऋषियों के नामों में माताओं के नाम का सम्बन्ध है। माता के नाम या माता के पिता के गोत्र के नाम के साथ नाम रखने की परिपाटी कालान्तर में भी चलती रही। ऋग्वेद एवं अन्य वैदिक ग्रन्थों में वहुधा नामों के साथ पिता के नामों का सम्बन्ध पाया जाता है, यथा--अम्बरीष, ऋजाश्व, महदेव एवं मुराधस् को वार्षागिर (वृषागिर के पुत्र, ऋ० १११००७), राजा सुदास को पैजवन कहा गया है (पिजवन का पुत्र. ऋ० ७।१८।२२), देवापि की आष्टिषेण कहा गया है (ऋष्टिषेण का पुत्र, ऋ० १०१९८४५-६); इसी प्रकार देखिए शम्य वार्हस्पत्य (तैत्तिरीयसंहिता २१६।१०), भृगु वाणि (ऐतरेय ब्राह्मण १३१० एवं तैत्तिरीयसंहिता ३३१), भरत दौष्यन्ति (शतपथब्राह्मण १३।५।४।११. ऐतरेय ब्राह्मण ३९।९), नागानेदिष्ट मानव (ऐतरेय ब्राह्मण २२।९)।
____ नामों के विषय में प्रमुख नियमों का निर्धारण गृह्यसूत्रों द्वारा ही हुआ है (आश्वलायनगृह्यसूत्र १।१५।४-१०)। शांन्वायनगृह्यसूत्र में जो नियम हैं वे आश्वलायनगृह्यसूत्र से भिन्न हैं। हम नीचे कतिपय नियमों का उद्घाटन करते हैं
(१) सभी गृह्यसूत्रों में सर्वप्रथम नियम यह है कि पुरुष का नाम दो या चार अक्षरों का या सम संख्या वाला होना चाहिए ।वैदिक साहित्य में ये नाम हैं--बक, त्रित, कुत्स, भृयु या त्रसदस्य, पुरुकुत्स, मेध्यातिथि, ब्रह्मदत्त आदि। किन्तु तीन अक्षरों के नामों का, यथा कवष, च्यवन, भरत आदि एवं पाँच अक्षरों के नामों, यथा नामा, नेदिष्ठ, हिरण्यम्तूप आदि का अभाव नहीं पाया जाता। बैजवापगृह्यमूत्र में एक, दो, तीन, चार या किसी भी संख्या के नामों का समर्थन पाया गया है। शांखायन ने छः अक्षरों एवं बौधायन ने (२२१०२५) ६ या ८ अक्षर वाले नामों का भी समर्थन किया है।
(२) सभी गृह्यसूत्रों में यह नियम पाया जाता है कि नाम का आरम्भ उन्चारण करने योग्य में अर्धस्वर वाला अवश्य हो। महाभाष्य में याज्ञिकों के प्राचीन उद्धरण से भी यही वात झलकती है।
(३) कुछ सूत्रों में ऐसा आया है कि नाम के अन्त में विसर्ग हो किन्तु उसके पूर्व दीर्घ स्वर अवश्य होना चाहिए (आप०, भारद्वाज, हिरण्य०, पारस्कर० आदि)। आश्वलायन ने विसर्ग का अन्त में होना स्वीकार किया है। वैवानम एवं गोमिल ने विसर्ग या दीर्घ स्वर के साथ अन्त होना स्वीकार किया है। मम्मवत ये नियम सूदास, दीर्घतमाः, पृथुश्रवाः आदि ऋग्वेदीय नामों के आधार पर बने हैं।
(४) आपस्तम्ब ने लिखा है कि नाम के दो भाग होने चाहिए, जिनमें पहला संज्ञा हो और दूसरा क्रियात्मक हो, यथा ब्रह्मदत्त, देवदत्त, यज्ञदत्त आदि।
९. नाम चास्मै दधुः घोषववाद्यन्तरन्तस्थमभिनिष्टानान्तं यक्षरम् । चतुरमरं वा । दूधक्षरं प्रतिष्ठाकामश्चतुरारं ब्रह्मवर्चसकामः। युग्मानि त्वेव पुंसाम्। अयुजानि स्त्रीणाम् । अभिवादनीयं च समीक्षेत तन्मातापितरी विद्यातामोपनयनात्। आश्व० गृ० १०१५।४-१०।
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