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धर्मशास्त्र का इतिहास
(ग) आपस्तम्ब, बौधायन, भारद्वाज एवं पारस्कर ने नामकरण के लिए दसों दिन माना है। (घ) याज्ञवल्क्य (१।१२) ने जन्म के ११वें दिन नामकरण की व्यवस्था दी है।
(3) दौधायनगृह्यसूत्र (२।१।२३) में १०वा या १२वां दिन तथा हिरण्यकेशिगृह्यसूत्र में १२वा दिन माना गया है। रेखालस के अनुसार माता १०वें या १२वें दिन मूतिकागृह छोड़नी है और नामकरण की चर्चा करती है। मन (२०३०) के मत से १०वा या १२वा दिन या कोई शुभ तिथि (महुर्त एवं नक्षत्र के साथ) ठीक मानी जानी चाहिए।
(च) गोभिल (२२८1८) एवं ग्वादिर के अनुमार दम गतों, मौ रातों या एक वर्ष के उपरान्त नामकरण किसी भी दिन सम्पादित हो सकता है। लघ-आश्वलायन (६।१) ने ११वाँ, १२वाँ या १६वाँ दिन अच्छा कहा है। अपरार्क ने गृह्यपरिशिष्ट के अनुसार दसवीं रात्रि, मौवीं रात्रि या साल भर के उपगन्त ही नाम का काल ठीक माना है। भविष्यत्पुराण ने १०वीं या १२वीं या १८वों या १ मास के उपगल की तिथि की व्यवस्था दी है। बाण ने कादम्बरी में लिखा है कि तारापीड ने अपने पुत्र चन्द्रापीड का नाम दसवें दिन रखा (पूर्वभाग, अनुच्छेद ६८)।
टीकाकारों को इन विभिन्न मतों से कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। विश्वरूप ने १०वीं रात्रि के उपरान्त तथा कुल्लूक (मनु २॥३०) ने ११वें दिन (विश्वरूप के समान ही) नामकरण की तिथि मानी है। मेघातिथि ने १०वें एवं १२वें दिन के पूर्व नामकरण की तिथि नहीं मानी। अपरार्क ने लिम्बा है कि लोग अपने अपने गृह्यसूत्र के अनुसार तिथि का निर्णय करें। आधुनिक काल में नामकरण जन्म के १२वें दिन विना किसी वैदिक मन्त्रोच्चारण के मना लिया जाता है। स्त्रियाँ एकत्र होती हैं और पुरुषों से परामर्श कर नाम घोषित कर देती हैं और बच्चे को पालने पर डाल देती हैं। कहीं-कहीं अब भी यह संस्कार विधिवत् किया जाता है, किन्तु अब इसका प्रचलन एक प्रकार से उट गया है।
ऋग्वेद में एक चौथे नाम की चर्चा हुई है (८1८०।९), जो एक यज्ञ कर्म के उपराल रखा जाना है। मायण के मतानुसार चार नाम हैं, नाक्षत्र नाम (जिस नक्षत्र में वच्चा उत्पन्न होता है उस पर), गुप्त नाम, सर्वमाधारण को शात नाम तथा कोई यज्ञकर्म सम्पादित करने पर रखा गया नाम, यथा सोमयाजी, अर्थात सोमयाग करने स उत्पन्न नाम। ऋग्वेद के मन्त्र १०५४१४ में चार नामों की ओर संकेत है, एवं ९७५१२ में नोसरे नाम की चर्चा हुई है। ऋग्वेद (९।८७१३, १०५५।१-२) में गुप्त नाम की ओर स्पष्ट निर्देश है। शतपथब्राह्मण (३६ारा२४) में मी पिता द्वारा रखे गये तीसरे नाम का उल्लेख हुआ है। शतपथब्राह्मण (२।१।२।११) में आया है.---"अर्जुन इन्द्र का गुप्त नाम है, और फाल्गुनी नक्षत्रों का स्वामी इन्द्र है, अतः वे वास्तव में 'आर्जुन्य' हैं, किन्तु वे अप्रत्यक्ष रूप से 'फाल्गुन्य' कहे जाये हैं।" गुप्त या गुह्य नाम किस प्रकार रखा जाता था. यह वैदिक साहित्य से स्पष्ट नहीं हो पाता।
तीन नामों के उदाहरण वैदिक साहित्य में इस प्रकार हैं, यथा त्रसदस्यु (अपना नाम), पौरुकुन्स्य (पुरुकुत्स का पुत्र), मेरिक्षित (गिरिक्षिति का वंशज)। ये नाम ऋग्वेद (५।३३१८) में मिल जाते हैं। ऐतरेय ब्राह्मण (३३६५) में शुनश्शेप को आजीगति (अजीगत का पुत्र) एवं आंगिरस (मोत्र नाम) कहा गया है। राजा हरिश्चन्द्र को वहीं (ऐतरेयब्राह्मण ३३३१) वैधस (वेधस् का पुत्र) एवं ऐक्ष्वाक (इक्ष्वाकु का वंशज) कहा गया है। शतपथब्राह्मण (१३।५।४।१) में इन्द्रोत देवाप (देवापि का पुत्र) शौनक (गोत्र नाम) जनमेजय का पुरोहित कहा गया है। छान्दोग्योपनिषद् (५।३।१ एवं ७) में श्वेतकेतु आरुणेय (आरुणि के पुत्र) को गौतम (गोत्र नाम) कहा गया है। कठोपनिषद् में नचिकेता वाजश्रवस का पुत्र है और गौतम (गोत्र नाम) नाम से सम्बोधित है।
बहुधा वैदिक साहित्य में व्यक्ति दो नामों से सम्बोधित हैं। कुछ तो अपने एवं गोत्र के नाम से विख्यात हैं, यथा मेध्यातिथि काण्व (ऋ० ८।२।४०), हिरण्यस्तूप आंगिरस (१० १०।१४९।५), वत्सप्री मालन्दन (तैत्ति० ५।२।१।६), बालाकि गार्ग्य (बृहदारण्यकोपनिषद् २।१२१), च्यवन भार्गव (ऐतरेयब्राह्मण ३९।८)। कुछ व्यक्ति
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