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धर्मशास्त्र का इतिहास महीनों से सम्बन्धित हैं, यथा केशव, नारायण, माधव, गोविन्द, विष्णु, मधुसूदन, त्रिविक्रम, वामन, श्रीधर, हृषीकेश, पंचनाम, दामोदर।
___लड़कियों के नाम के विषय में भी विशिष्ट नियम बने थे। बहुत-से गृह्यसूत्रों में ऐसा आया है कि लड़कियों के नाम में सम मात्रा के अक्षर होने चाहिए, किन्तु मानवगृह्यसूत्र (१।१८) ने स्पष्ट लिखा है कि उनके नामों में तीन तीन अक्षर होने चाहिए। पारस्कर० एवं वाराहगृह्य ने लिखा है कि लड़कियों के नाम के अन्त में 'आ' की मात्रा होनी चाहिए। गोभिल एवं मानव के मत से अन्त 'दा' में होना चाहिए (सत्यदा, वसुदा, यशोदा, नर्मदा) । शंखलिखित एवं वैजवाप के अनसार अन्त 'ई' में होना चाहिए। किन्त बौधायन ने लिखा है कि अन्त दीर्घ होना चाहिए। मन (२१३३) के मत से अन्त लम्बे स्वर (दीर्घ) में होना चाहिए। इसी प्रकार कई विभिन्न मत मिलते हैं। आजकल लड़कियों के नाम नदियों पर मिलते हैं, यथा--सिन्धु, जाह्नवी, यमुना, ताप्ती, नर्मदा, गोदा, कृष्णा, कावेरी आदि।
मनु ने गृह्यसूत्रों के जटिल नियमों का परित्याग कर दिया है। उन्होंने नामकरण के दो सरल नियम दिये हैं; (१) सभी वर्गों के नाम शुभसूचक, शक्तिवोधक, शान्तिदायक होने चाहिए. (२।३१-३२); (२) ब्राह्मणों एवं अन्य वर्गों के नाम के साथ एक उपपद होना चाहिए, जिससे शर्म (प्रसन्नता), रक्षा, पुष्टि एवं प्रेष्य का संकेत मिले। पारस्कर को छोड़कर किसी अन्य गृह्यसूत्र में ब्राह्मणों या अन्य लोगों के नामों के आगे शर्मा आदि का जोड़ा जाना नहीं लिखा गया है। महाभाष्य में इन्द्रवर्मा, इन्द्रपालित आदि नाम मिलते हैं, जिनमें प्रथम राजन्य अर्थात् क्षत्रिय का तथा दूसरा वैश्य का है। यम के अनुसार ब्राह्मणों की नामोपाधि शर्मा या देव, क्षत्रिय की वर्मा या त्रात, वैश्य की भूति या दत्त तथा शूद्र की दास है। किन्तु इस नियम का पालन सदा पाया नहीं गया। तालगुण्ड अभिलेख में कदम्ब-वंश का संस्थापक ब्राह्मण था और उसका नाम था मयूर शर्मा, किन्तु उसके वंशजों ने क्षत्रियों की भाँति वर्मा नामोपाधि धारण की थी।
यहाँ पर मातृ-गोत्रनाम के सम्बन्ध में भी कुछ लिखना आवश्यक है। वैदिक साहित्य का हवाला पहले ही दिया जा चुका है। आश्वलायनगृह्यसूत्र (११५।१) का कहना है कि वर या कन्या के चुनाव में पिता एवं माता के वंश की परीक्षा कर लेनी चाहिए। आश्वलायनश्रौतसूत्र में आया है कि दशपेय कम में चममभक्षण के समय ब्राह्मण के माता तथा पिता दोनों दस पीढ़ियों तक विद्या, पवित्रता आदि गुणों में पूर्ण होने चाहिए। याज्ञवल्क्य (११५४) ने लिखा है कि कन्या के चुनाव में इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि उसका वंश श्रोत्रिय हो और दम पीढ़ियों तक विद्या एवं चरित्र के लिए प्रसिद्ध हो। अतः माता या माता के पिता के नाम से सम्बन्धित नाम का अर्थ यह है कि वह अच्छे वंश का सूचक है। नासिक अभिलेख (नं० २) में मिरि (श्री) पुलमायी को वासिठीपुत्त कहा गया है। इसी प्रकार आभीर राजा ईश्वरमेन माठीपुत्र कहा गया है। एक मिथिएन अभिलेख में "भार्गवी के पुत्र" को और मकेत किया गया है। इन नामा से तात्पर्य है माता के प्रसिद्ध कुल की ओर संकेत करना। कालान्तर के लेखक अपने मातृगोत्र का भी नाम लेते हैं, यथा भवभूति (७००-७५० ई०) ने अपने को काश्यप एवं
१२. नक्षत्रनामा नदीनामा वृक्षनामाश्च गहिताः। आप० गृ० ३।१३; शमं ब्राह्मणस्य वर्म क्षत्रियस्य गुप्तेति वैश्यस्य । पारस्कर १।१७। बौधायनगृह्यशेषसूत्र (१।११।१०) में आया है-"अथाप्युदाहरन्ति-शर्मान्तं ब्राह्मणस्य, वर्मान्तं क्षत्रियस्य, गुप्तान्तं वैश्यस्य, भृत्यदासान्तं शूद्रस्थ दासान्तमेव वा।" यम--शर्मा देवश्च विप्रस्य वर्मा त्राता च भूभुजः । भूतिर्वत्तश्च वैश्यस्य दासः शूद्रस्य कारयेत् ॥
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