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धर्मशास्त्र का इतिहास में कुछ अन्तर पाया जाता है। इस संस्कार के विषय में जितने भी गृह्यसूत्रों के नाम दिये गये हैं, उन सभी में कुछन-कुछ अन्तर पाया जाता है।
जातकर्म यह कृत्य अत्यन्त प्राचीन है। तैत्तिरीयसहिता (२।२।५।३-४) में हम पढ़ते हैं-"जब किसी को पुत्र उत्पन्न हो तो उसे १२ विभिन्न पात्रों में पकी हुई रोटी (पुरोडाश) की बलि वैश्वानर को देनी चाहिए....। वह पुत्र जिसके लिए यह 'इष्टि' की जाती है, पवित्र, गौरवपूर्ण, धनधान्य से सम्पूर्ण, वीर एवं पशु वाला होता है।" इससे स्पष्ट है कि लड़के के जन्म पर वैश्वानरेष्टि कृत्य किया जाता था। जैमिनि (४।३।३८) ने इसकी व्याख्या की है और कहा है कि यह इष्टि पुत्र के लिए है न कि पिता के लिए। शबर ने अपने भाष्य में कहा है कि जातकर्म के उपरान्त यह इष्टि करनी चाहिए (पुत्र की उत्पत्ति के तुरन्त पश्चात् ही नहीं), जन्म के दस दिनों के उपरान्त पूर्णमासी या अमावस्या दिवस को इसे करना चाहिए। शतपथब्राह्मण ने नालच्छेदन (सद्य: जात बच्चे की नाभि से निकला हुआ स्नायुमृणाल, जो गर्भाशय से लगा रहता है) के पूर्व के एक कृत्य का वर्णन किया है। बृहदारण्यकोपनिषद् (१।५।२) में भी इस कृत्य की ओर संकेत है, यथा “जब पुत्र की उत्पत्ति होती है, तब उसे सर्वप्रथम विमलीकृत मक्खन घटाना चाहिए, तब माँ के स्तन का स्पर्श कराना चाहिए।" इस उपनिषद् के अन्त में (६।४।२४-२८) जातकर्म का एक विस्तारपूर्ण वर्णन है-पुत्रोत्पत्ति के उपरान्त अग्नि प्रज्वलित की जाती है। तदुपरान्त बच्चे को किसी की गोद में रखकर, दही को घी से मिलाकर एवं उसे कांस्यपात्र में रखकर इन मन्त्रों को पढ़ा जाता है-"मैं एक सहस्र सन्तानों को समृद्धि के साथ पाल सकू, सन्तान-पशु-वृद्धि में कोई अवरोध न उपस्थित हो, स्वाहा; मैं आपको अपने प्राण दे रहा हूँ, स्वाहा; जो कुछ मैंने इस कर्म में अधिक किया हो या कम किया हो, उसे अग्रि देवता, जिन्हें स्विष्टकृत् कहा जाता है, भरपूर एवं अच्छा किया हुआ बनायें तथा हमारे द्वारा भली प्रकार सम्पादित समझें।" इसके पश्चात् अपने मुख को बच्चे के दायें कान की ओर घुमाकर वह “वाक्” शब्द तीन बार उच्चारित करता है। तब दही, घृत एवं मधु मिलाकर सोने के चम्मच से बच्चे को पिलाता है और इन मन्त्रों को कहता है-“मैं तुम में भूः रखता हूँ, भुवः रखता हूँ, स्वः रखता हूँ और तुममें भूर्भ वः स्वः, सभी को एक साथ रखता हूँ।" तब वह नवजात शिशु को “तू वेद है" ऐसा कहकर नाम रखता है। यही उसका गुप्त नाम हो जाता है। तब वह शिशु को उसकी मां को देता है और उसे ऋग्वेद के मन्त्र (१११६४१४९) के साथ माँ का स्तन देता है। इसके उपरान्त वह बच्चे की माँ को मन्त्रों के साथ सम्बोधित करता है।
उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि बृहदारण्यकोपनिषद् में जातकर्म संस्कार के निम्नलिखित भाग हैं(१) दही एवं घृत का मन्त्रों के साथ होम; (२) बच्चे के दाहिने कान में 'वाक्' शब्द को तीन बार कहना; (३) सुनहले चम्मच या शलाका से बच्चे को दही, मधु एवं घृत चटाना; (४) बच्चे को एक गुप्त नाम देना (नामकरण); (५) बच्चे को माँ के स्तन पर रखना; (६) माता को मन्त्रों द्वारा सम्बोधित करना। शतपथब्राह्मण में एक और बात जोड़ दी है; यथा--पाँच ब्राह्मणों द्वारा पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर तथा ऊपर की दिशाओं से बच्चे के ऊपर साँस लेना। यह कार्य केवल पिता भी कर सकता है।
जातकर्म के विस्तार के विषय में गृह्यसूत्रों में बहुत भिन्नताएँ पायी जाती हैं। कुछ गृह्यसूत्रों में उपर्युक्त सातों बातों की और कुछ में दो-एक कम की चर्चा हुई है। विभिन्न शाखाओं के अनुसार वैदिक मन्त्रों में भी भेद पाया जाता है।
जन्म के उपरान्त ही यह संस्कार होना चाहिए। किन्तु इसके करने के ढंग में मतैक्य नहीं है। आश्वलायन
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