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जन्मसम्बन्धी संस्कार
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गर्भाधान पर किया जाता था। एक दिन पूर्व नान्दीश्राद्ध की व्यवस्था की गयी है। इसके उपरान्त अग्नि-होम आज्यभाग तक किया जाता है। अग्नि के दक्षिण कमल या स्वस्तिक के चिह्न के आकार का एक अन्य स्थण्डिल बनाया जाता है, जिस पर विष्णु को पके हुए चावल की (घृत के साथ) ६४ आहुतियाँ दी जाती हैं। कुछ लोग विष्णु को न देकर अग्नि को ही आहुति देते हैं। इसमें मन्त्रों का उच्चारण होता है (ऋग्वेद १।२२।१६-२१; १११५४।१-६; ६।६९।१-८; ७।१०४।११; १०।९०११-१६; १०।१८४११-३)। अग्नि के उत्तर-पूर्व में एक वर्गाकार स्थल पर गोबर लीपकर उसे श्वेत मिट्टी से ६४ वर्गों में बाँटकर, पके हुए चावल की ६४ आहुतियां दी जाती हैं। उपर्युक्त मन्त्रों का ही उच्चारण होता है। ६४ आहतियों के ऊपर एक आहति विष्ण के लिए रहती है और "नमो नारायणाय" का उच्चारण किया जाता है। पति तथा पत्नी पृथक्-पृथक् उसी चावल के दो पिण्ड खाते हैं। इसके उपरान्त अग्नि स्विष्टकृत् को बलि दी जाती है। ब्राह्मणों को भोजन एवं दक्षिणा दी जाती है। वैखानस (३।१३) ने विष्णुबलि का एक भिन्न रूप उपस्थित किया है। सर्वप्रथम अग्नि तथा अन्य देवतागण प्रणिधि-पात्र के उत्तर बुलाये जाते हैं और अन्त में 'पुरुष' चार बार “ओम् भूः, ओम् भुवः, ओम् स्वः, ओम् भूर्भुवः स्वः" के साथ बुलाया जाता है। तब अग्नि के पूर्व में संस्कारकर्ता कुशों पर केशव, नारायण, माधव, गोविन्द, विष्णु, मधुसूदन, त्रिविक्रम, वामन, श्रीधर, हृषीकेश, पद्मनाभ, दामोदर के नाम से विष्णु का आवाहन करता है। इसके उपरान्त विष्णु को मन्त्रों के साथ स्नान कराया जाता है (मन्त्र ये है "आप:०"-नैत्तिरीय संहिता ४।१।५।११, ऋग्वेद १०१९।१-३, "हिरण्यवर्णा:०"--तैतिरीय संहिता ५।६।१ तथा वह अध्याय जिसका आरम्भ “पवमानः" से होता है)। विष्णु की पूजा बारहों नामों द्वारा चन्दन पुष्प आदि से की जाती है : नब घृत की “अतो देवा" (ऋग्वेद १।२२।१६-२१), "विष्णोर्नुकम्” (ऋग्वेद १११५४।१-७), "तदस्य प्रियम्" (नैत्तिरीय संहिता २१४१६, ऋग्वेद १११५४।५), "प्रतद्विष्णुः' (तैत्तिरीय ब्राह्मण २।४।३, ऋग्वेद १११५४।२), "परो मात्रया" (नैत्तिरीय ब्राह्मण २।८।३), "विचक्रम विर्देवाः" (तैत्तिरीय ब्राह्मण २।८।३) नामक मन्त्रों के साथ १२ आहुतियाँ दी जाती हैं। इसके उपरान्त संस्कारकर्ता दूध में पकाये हुए चावल की बलि की, जिस पर आज्य रखा रहता है, घोषणा करता है और १२ नामों को दुहराता हुआ १२ मन्त्रों के माथ (ऋग्वेद १।२२।१६-२१ एवं ऋग्वेद १११५४।१-६) बलि देता है। इसके उपरान्त वह चारों वेदों से मन्त्र लेकर देवताओं की स्तुति करके झकता है और बारहों नामों से "नमः" शब्द के साथ प्रणाम करता है। अन्त में चावलों का जो भाग शेष रहता है उसे स्त्री खा लेती है।
सोप्यन्तीकर्म
इस संस्कार की चर्चा आपस्तम्बगृह्यसूत्र (१४११३-१५), हिरण्यकेशिगृह्यसूत्र (२२।८, २।३।१), भारद्वाजगृह्यसूत्र (१।२२), गोभिलगृह्यसूत्र (२।७।१३-१४), खादिरगृह्यसूत्र (२।२।२९-३०), पारस्करगृह्यसूत्र (१।१६), काठकगृह्यसूत्र (३३।१-३) में हुई है, अतः यह अति प्राचीन संस्कार है। इस संस्कार का अर्थ है “एक ऐसी नारी के लिए सस्कार जो अभी बच्चा जननेवाली हो" अर्थात् बच्चा जननेवाली नारी के लिए संस्कार या कृत्य। ऋग्वेद (५।७८।७-९) में इसके प्रारम्भिकतम संकेत पाये जाते हैं-"जिस प्रकार वायु झील को सब ओर से हिला देता है, उसी प्रकार दसवें महीने में भ्रूण हिले और बाहर चला आये। जिस प्रकार वायु, वन एवं समुद्र गति में हैं, उसी प्रकार हे भ्रूण, तुम दम माम में हो, बाहर चले आओ। पुत्र, माँ के अन्तः में दस मास सोने के उपरान्त वाहर आओ, जीवितावस्था में चले आओ, सुक्षित चले आगो, माँ भी जीवित रह।" वृहदारण्यकोपनिपद् (६।४।२३) ने भी इस मंस्कार की चर्चा की है, आपस्तम्बगृह्यसूत्र ने भी उल्लेख किया है। विस्तार के विषय में गृह्यसूत्रों
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