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जातकर्म संस्कार
१९३ गृह्यसूत्र (१।१५।२) के अनुसार यह कृत्य किसी अन्य व्यक्ति द्वारा (माँ एवं दाई को छोड़कर) स्पर्श होने के पूर्व किया जाना चाहिए। पारस्करगृह्यसूत्र (१११६) के अनुसार नाल काटने से पूर्व यह संस्कार हो जाना चाहिए। यही बात गोभिल (२।७।१७) एवं खादिर (२।२।३२) में भी पायी जाती है।
आश्वलायन एवं शांखायन ने जन्म के समय गुप्त नाम रखने को कहा है, किन्तु अलग से नामकरण संस्कार की चर्चा नहीं की है। शांखायनगृह्यसूत्र (१।२४।६) ने जन्म के दसवें दिन व्यावहारिक नाम रखने को कहा है। अब हम नीचे इस संस्कर के विभिन्न भागों का संक्षेप में वर्णन करेंगे।
(१) होम-जन्म के समय इसका वर्णन बृहदारण्यक०, मानव एवं काठकगृह्यसूत्र में पाया जाता है। आश्वलायनगृह्यसूत्र के परिशिष्ट (११२६) में आया है कि अग्नि तथा अन्य देवताओं के लिए होम करना चाहिए। होम के उपरान्त ही बच्चे को मधु एवं घृत देना चाहिए। इसके उपरान्त अग्नि को आहुति देनी चाहिए। गोभिल एवं खादिर ने इसे सोष्यन्तीकर्म में अर्थात् जन्म के पूर्व करने को कहा है। बौधायनगृह्यसूत्र (२।१।१३) में इसे सम्पूर्ण कृत्य के उपरान्त करने को कहा गया है। आश्वलायन, शांखायन आदि ने इसे छोड़ दिया है। पारस्करगृह्य० (१।१६), हिरण्यकशिगृह्य ०, भारद्वाजगृह्य० (१।२६) ने लिखा है कि औपासन (गृह्य) अग्नि को हटाकर सूतिकाग्नि स्थापित करनी चाहिए। सूतिकाग्नि को उत्तपनीय भी कहा गया है। यह अग्नि सूतिका-गृह (जहाँ शिशु के साथ उसकी मां रहती है) के द्वार पर रखी जाती है। वैखानस (३।१५) ने इस अग्नि को जातकाग्नि एवं उत्तपनीय कहा है। इन मतों के अनुसार जन्म के समय इस अग्नि में श्वेत रंग की सरसों तथा चावल डालने चाहिए और यह कृत्य जन्म के उपरान्त दस दिनों तक प्रत्येक प्रातः एवं सन्ध्या में मन्त्रों के साथ किया जाना चाहिए।
(२) मेधाजनन--इसके दो अर्थ हैं। बृहदारण्यकोपनिषद् में यह शब्द नहीं मिलता। आश्वलायन एवं शाखायन (१।२४।९) में शिशु के दाहिने कान में मन्त्रोच्चारण को मेधा-जनन कहा गया है। किन्तु वैखानस, हिरण्यकेशी, गोभिल में मेधाजनन को दाहिने कान में कुछ कहने के स्थान पर बच्चे को दही, घृत आदि खिलाना कहा गया है। क्या खिलाया जाय या क्या न खिलाया जाय, इस विषय में भी मतैक्य नहीं है। कालान्तर के ग्रन्थों ने, यथा-- सस्कारमयूख ने मधु एवं धृत का दिया जाना जातकर्म संस्कार का एक प्रमुख अंग माना है।
(३) आयुष्य-कुछ सूत्रों ने जातकर्म के सिलसिले में आयुष्य नामक कृत्य का भी उल्लेख किया है। यह है बच्चे की नाभि पर मन्त्रोच्चारण करना, या लम्बी आयु के लिए दाहिने कान या नाभि पर कुछ कहना। आश्वलायन ने दही एवं घृत खिलाते समय इसी बात की ओर संकेत किया है। भारद्वाज०, मानवगृह्य०, काठक० आदि ने भी यही बात कही है।
(४) अंसाभिमर्शन (बच्चे के कन्धे या दोनों कन्धों को छूना)-आपस्तम्ब ने लिखा है कि पिता 'वात्सप्र' अनुवाक के साथ बच्चे को छूता है। पारस्कर, भारद्वाज आदि ने बच्चे को दो बार छूने को कहा है, एक बार वात्सप्र अनुवाक (वाज० १२॥१८-२९; तैत्ति० ४।२।२) के साथ तथा दूसरी बार "पत्थर (जैसा दृढ) हो, कुल्हाड़ी (जैसा पर-घातक) हो" के साथ। कुछ सूत्रों में यह क्रिया छोड दी गयी है।
(५) मात्रभिमन्त्रण (माता को सम्बोधित करना)-पिता द्वारा माता वैदिक मन्त्रों से सम्बोधित होती है। बहुत-से सूत्रों में इसकी चर्चा नहीं हुई है। हिरण्यकेशिगृह्यसूत्र में एक दूसरा मन्त्र रखा गया है
(६) पञ्च-गाह्मणस्थापन--शतपथ० में आया है कि पाँच ब्राह्मण या केवल पिता शिशु लेता है। पारस्कर में भी यही बात है (पाँच ब्राह्मण पूर्व से क्रमशः प्राण, व्यान, अपान, उदान एवं समान को दुहराएंगे)। शांखायन ने केवल पिता को ही तीन बार बच्चे के ऊपर साँस लेने को कहा है। यह तीन संख्या तीन वेदों की ओर संकेत करती है। बहुत-से सूत्रों ने इसका उल्लेख ही नहीं किया है।
धर्म० २५
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