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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास याज्ञवल्क्यस्मृति में विनायक-सम्प्रदाय के कालान्तरीय स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है (१२२७१-२७४)। विनायक को (याज्ञ० ११२७१) गणों के स्वामी के रूप में ब्रह्मा एवं रुद्र द्वारा नियुक्त दर्शाया गया है। वे न केवल अवरोध उत्पन्न करनेवाले, प्रत्युत मनुष्यों के क्रियासंस्कारों में सफलता देनेवाले कहे गये हैं। याज्ञवल्क्य ने मानवगृह्य में उल्लिखित विनायक की बाधा का भी वर्णन किया है। याज्ञवल्क्य (१२२८५) के अनुसार विनायक के चार नाम हैं-मित, सम्मित, शालकटंकट एवं कूष्माण्डराजपुत्र और उनकी माता का नाम है अम्बिका। विश्वरूप एवं अपरार्क ने तो विनायक के चार ही नाम बताये हैं, किन्तु मिताक्षरा ने शालकटकट एवं कूष्माण्डराजपुत्र को दो-दो भागों में तोड़कर छ: नाम गिनाये हैं, यथा--मित, सम्मित, शाल, कटंकट, कूष्माण्ड एवं राजपुत्र। अमरकोश की व्याख्या में क्षीरस्वामी ने स्पष्ट रूप से 'हेरम्ब' शब्द को देश्य कहा है। अतः यह कहा जा सकता है कि गणेश वैदिक देवों की पंक्ति में किसी देशोद्भव जाति से आये और रुद्र (शिव) के साथ जुड़ गये। याज्ञवल्क्य ने विनायक की प्रसिद्ध उपाधियों की चर्चा नहीं की है, यथा--एकदन्त, हेरम्ब, गजानन, लम्बोदर आदि । बौधायनगृह्यशेषसूत्र (३।१०) ने विनायक की आराधना के लिए भिन्न ढंग अपनाया है और उसे भूतनाथ, हस्तिमुख, विघ्नेश्वर कहा है एवं 'अपूप' तथा 'मोदक' की आहुतियों की चर्चा की है। स्पष्ट है, याज्ञवल्क्य की अपेक्षा बौधायन मध्य काल के धर्मशास्त्रकारों के अधिक समीप लगते हैं। गणेश महाभारत के आदिपर्व में व्यास के लिपिक के रूप में आते हैं, किन्तु यह बात महाभारत के कुछ संस्करणों में नहीं पायी जाती। वनपर्व (६५।२३) एवं अनुशासनपर्व (१५०।२५) में वर्णित विनायक मानवगृह्य के विनायक के समान ही हैं। गोभिलस्मृति (१।१३) के अनुसार सभी कृत्यों के आरम्भ में गणाधीश के साथ 'मातृका' की पूजा होनी चाहिए। ईसा की पाँचवी एवं छठी शताब्दियों के उपरान्त ही गणेश एवं उनकी पूजा से सम्बन्धित सारी प्रसिद्ध विशिष्टताएं स्पष्ट हो सकी थी। महाकवि कालिदास ने गणेश की चर्चा नहीं की है। गाथासप्तशती में गणेश का उल्लेख है (४।७२ एव ५६३)। अपने हर्षचरित में वाण न (४ उच्छ्वास, प्र० २) गणाधिप की लम्बी सूंड की चर्चा की है और भैरवाचार्य (हर्षचरित ३) क उल्लेख में विनायक को बाधाओं एवं विद्या से सम्बन्धित माना है तथा उनके शरीर में हाथी का सिर माना है। वामनपुराण (अध्याय ५४) में विनायक के जन्म के विषय में एक विचित्र गाथा का वर्णन पाया जाता है। महावीरचरित्र (२।३८) में हेरम्ब की रॉड का उल्लेख है। मत्स्यपुराण (अध्याय २६०।५२-५५) ने विनायक की मूर्ति के निर्माण की विधि बतायी है। अपरार्क ने मत्स्यपुराण (२८९।७) को उद्धृत कर महाभूतघट नामक महादान की चर्चा में विनायक को मूपक (चूहे) की सवारी पर प्रदर्शित किया है। भाद्रपद चतुर्थी की गणेश-पूजा के विषय में कृत्यरत्नाकर ने भविष्यपुराण से उद्धरण दिया है। इस विषय में अग्निपुराण के ७१वें एवं ३१३वें अध्यायों को देखना आवश्यक है। भास्करवर्मा (सातवीं शताब्दी) के निधानपुर के अभिलेख में गणपति का नाम आता है। गणपतिपूजन में ऋग्वेद (२।२३।१) की “गणानां त्वा गणपतिम्" नामक स्तुति की जाती है तथा "ओम् महागणपतये नमो नमः निर्विघ्नं कुरु" नामक शब्दों से प्रणाम किया जाता है। पुण्याहवाचन यद्यपि संस्काररत्नमाला जैम कतिपय निवन्धों में पुण्याहवाचन का वृहत् वर्णन पाया जाता है, किन्तु अति प्राचीन काल में यह बहुत ही सीधा-सादा कृत्य था। आपस्तम्बधर्मसूत्र (१।४।१३।८) में आया है कि सभी शुभ कृत्यों में (यथा विवाह में) सभी वाक्य “ओम्" से आरम्भ होते हैं, और "पुण्याहम्", "स्वस्ति" एवं “ऋद्धिम्" का उच्चारण किया जाता है। क्रिया-संस्कार या कृत्य करनेवाला व्यक्ति उपस्थित ब्राह्मणों को गन्ध, पुष्प एवं ताम्बूल (पान) से सम्मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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