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________________ भारम्भिक संस्कार १८५ होता है। कुछ लोगों के मत से सबमें एक ही संकल्प होता है, किन्तु कुछ लोगों के मत से प्रत्येक पुण्याहवाचन, मातृकापूजन एवं नान्दीश्राद्ध के लिए पृथक्-पृथक् संकल्प होते हैं। सभी प्रकार के कृत्यों में होता या कर्ता सर्वप्रथम स्नान करता है, शिखा बांधता है, थोड़े से स्थान को गोबर से लिपवा कर उस पर रंगीन पदार्थों से रेखाएं बनवाता है, जहाँ पानी से भरे दो मंगल-कलश रख दिये जाते हैं जिन पर ढक्कन रखा रहता है। आवश्यक वस्तुएँ स्थान के उत्तर में रख दी जाती हैं। दो लकड़ी के पीढ़े पश्चिम दिशा में रख दिये जाते हैं, जिनमें एक पर कर्ता पूर्वाभिमुख बैठता है और दूसरे पर दाहिनी ओर उसकी पत्नी बैठती है, किन्तु यदि पुत्र के लिए कृत्य किया जा रहा हो तो पति पली की दाहिनी ओर बैठता है। पत्नी से दक्षिण थोड़ी दूर हटकर ब्राह्मण लोंग उत्तराभिमुख बैठते हैं तथा कर्ता आचमन करता है। वार्षिक श्राद्ध आदि को छोड़कर सभी संस्कार एवं कृत्य किसी पूर्व-निश्चित तिथि को ही किये जाते हैं। गणपति-पूजन इस पूजन में हस्तिमुख देवता गणेश की उपस्थिति का आवाहन एक मुट्ठी चावल के साथ पान के एक पत्ते पर या गोबर के एक छोटे पिण्ड पर किया जाता है। ऋग्वेद में 'गणपति' शब्द का प्रयोग ब्रह्मणस्पति (प्रार्थना के स्वामी या पवित्र स्तवन के देवता) की एक उपाधि के रूप में आया है ? ऋग्वेद (२।२३॥१) का मन्त्र "गणानां त्वा गणपति हवामहे" जो गणेश के आवाहन के लिए प्रयुक्त होता है, ब्रह्मणस्पति का ही मन्त्र है। ऋग्वेद (१०१११२। ९) में इन्द्र को गणपति के रूप में सम्बोधित किया गया है। तैत्तिरीय संहिता (४।१।२।२) एवं वाजसनेयी संहिता में पशु (विशेषतः अश्व) रुद्र के गाणपत्य कहे गये हैं। ऐतरेय ब्राह्मण (४।४) में स्पष्ट आया है कि “गणानां त्वा" नामक मन्त्र ब्रह्मणस्पति को सम्बोधित है। वाजसनेयी संहिता (१६।२५) में बहुवचन (गणपतिभ्यश्च वो नमः) तथा एकवचन (गणपतये स्वाहा) दोनों रूपों का प्रयोग हुआ है। मध्य काल में गणेश का जो विलक्षण रूप (हस्तिमुख, निकली हुई तोंद या लम्बोदर, चूहा वाहन) वर्णित है, वह वैदिक साहित्य में नहीं पाया जाता। वाजसनेयी संहिता (३।५७) में चूहे (मूषक) को रुद्र का पशु, अर्थात् 'रुद्र को दिया जानेवाला पशु' कहा गया है। गृह्य एवं धर्मसूत्रों में धार्मिक कृत्यों के समय गणेशपूजन की ओर कोई संकेत नहीं मिलता। स्पष्ट है, गणेश-पूजा कालान्तर का कृत्य है। बौधायनधर्मसूत्र (२।५।८३-९०) में देवतर्पण में विघ्न, विनायक, वीर, स्थूल, वरद, हस्तिमुख, वक्रतुण्ड, एकदन्त एवं लम्बोदर का उल्लेख पाया जाता है। किन्तु यह अंश क्षेपक-सा लगता है। ये विभिन्न उपाधियां विनायक की हैं (बौधायन-गृह्यशेषसूत्र ३।१०।६)। मानवगृह्य० (२।४) में विनायक चार माने गये हैं-शालकटंकट, कूष्माण्डराजपुत्र, उस्मित एवं देवयजन। ये दुष्ट आत्माएं (प्रेतात्माएँ) हैं और जब ये लोगों को पकड़ लेती हैं, उन्हें दुःस्वप्न आते हैं और बड़े भयंकर अशोभन दृश्य दृष्टिगोचर होतें हैं। यथा मुण्डित-शिर व्यक्ति, लम्बी जटा वाले व्यक्ति, पीत वस्त्र वाले व्यक्ति, ऊँट, गदहे, शूकर, चाण्डाल । उनके प्रभाव से योग्य राजकुमार राज्य नहीं पाते, शुभ लक्षणों वाली सुन्दरियां पति नहीं पाती, विवाहित नारियों को सन्तान नहीं होती, गुणशीला नारियों की सन्तान शैशवावस्था में ही मर जाती हैं कृषकों की कृषि नष्ट हो जाती है। आदि-आदि। अतः मानवगृह्य ने विनायक की बाधा से मुक्ति पाने के लिए पूजन की क्रियाओं का वर्णन किया है। बैजवापगृह्य (अपरार्क, याज्ञ. १२२७५) ने मित, सम्मित, शालकटंकट एवं कूष्माण्डराजपुत्र नामक चार विनायकों का वर्णन किया है और ऊपर वर्णित उनकी बाधा की चर्चा की है। इन दोनों वर्णनों से विनायक-सम्प्रदाय के विकास की प्रथमावस्था का परिचय मिलता है। आरम्भ के विनायक दुरात्माओं के रूप में वर्णित हैं, जो भयंकरता एवं भांति-भांति का अवरोध खड़ा करते हैं। लगता है, इस (विनायक) सम्प्रदाय में रुद्र के भयंकर स्वरूपों एवं आदिवासी जातियों के धार्मिक कृत्यों का समावेश हो गया है। धर्म-२४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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