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________________ अध्याय ६ संस्कार 'संस्कार' शब्द प्राचीन वैदिक साहित्य में नहीं मिलता, किन्तु 'सम्' के साथ 'कृ' धातु तथा 'संस्कृत शब्द बहुधा मिल जाते हैं। ऋग्वेद (५७६।२) में 'संस्कृत' शब्द धर्म (बरतन) के लिए प्रयुक्त हुआ है, यया "दोनों अश्विन् पवित्र हुए बरतन को हानि नहीं पहुँचाते।" ऋग्वेद (६।२८।४) में संस्कृतत्र' तथा (८१३९।९) 'रणाय संस्कृतः' शब्द प्रयुक्त हुए हैं। शतपथ-ब्राह्मण में (१।१।४।१०) आया है-'स इदं देवेभ्यो हविः संस्कुरु साधु संस्कृतं संस्कुवित्येवैतदाह । पुनः वहीं (३।२।१।२२) आया है--'तस्मादु स्त्री पुमांसं संस्कृते तिष्ठन्तमम्येति', अर्थात् 'अतः स्त्री किसी संस्कृत (सुगठित) घर में खड़े पुरुष के पास पहुंचती हैं' (देखिए इसी प्रकार के प्रयोग में वाजसनेयी सहिता ४१३४)। छान्दोग्योपनिषद् में आया है-'तस्मादेष एवं यज्ञस्तस्य मनश्च वाक् च वर्तिनी। तयोरन्यतरां मनसा संस्करोति ब्रह्मा वाचा होता' (४।१६।१-२), अर्थात् 'उस यज्ञ की दो विधियाँ हैं, मन से या वाणी से, ब्रह्मा उनमें से एक को अपने मन से बनाता या चमकाता है। जैमिनि के सूत्रों में संस्कार शब्द अनेक बार आया है (३।१।३; ३।२।१५; ३१८१३; ९।२।९; ४२,४४,; ९।३।२५; ९।४।३३; ९।४।५० एवं ५४; १०।१।२ एवं ११ आदि) और सभी स्थलों पर यह यज्ञ के पवित्र या निर्मल कार्य के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, यथा ज्योतिष्टोम यज्ञ में सिर के केश मुंडाने, दाँत स्वच्छ करने, नाखून कटाने के अर्थ में (३।८।३); या प्रोक्षण (जल छिड़कने) के अर्थ में (९।३।२५), आदि। जैमिनि के ६।१।३५ में 'संस्कार' शब्द उपनयन के लिए प्रयुक्त हुआ है। ३।११३ की व्याख्या में शबर ने 'संस्कार' शब्द का अर्थ बताया है कि "संस्कारो नाम स भवति यस्मिन्जाते पदार्थो भवति योग्यः कस्यचिदर्थस्य", अर्थात् संस्कार वह है जिसके होने से कोई पदार्थ या व्यक्ति किसी कार्य के लिए योग्य हो जाता है। तन्त्रवार्तिक के अनुसार “योग्यतां चादधाना: क्रियाः संस्कारा इत्युच्यन्ते", अर्थात् संस्कार वे क्रियाएँ तथा रीतियाँ हैं जो योग्यता प्रदान करती हैं। यह योग्यता दो प्रकार की होती है। पाप-मोचन से उत्पन्न योग्यता तथा नवीन गुणों से उत्पन्न योग्यता। संस्कारों से नवीन गुणों की प्राप्ति तथा तप से पापों या दोषों का मार्जन होता है। वीरमित्रोदय ने संस्कार की परिभाषा यों की है-यह एक विलक्षण योग्यता है जो शास्त्रविहित क्रियाओं के करने से उत्पन्न होती है ।.....यह योग्यता दो प्रकार की है--(१) जिसके द्वारा व्यक्ति अन्य क्रियाओं (यथा उपनयन संस्कार से वेदाध्ययन आरम्भ होता है) के योग्य हो जाता है, तथा (२) दोष (यथा जातकर्म संस्कार से वीर्य एवं गर्भाशय का दोष मोचन होता है) से मुक्त हो जाता है। संस्कार शब्द गृह्यसूत्रों में नहीं मिलता (वैखानस में मिलता है), किन्तु यह धर्मसूत्रों में आया है (देखिए गौतमधर्मसूत्र ८८; आपस्तम्बधर्मसूत्र १।११९ एवं वसिष्ठधर्मसूत्र ४।१)। संस्कारों के विवेचन में हम निम्न बातों पर विचार करेंगे---संस्कारों का उद्देश्य, संस्कारों की कोटियाँ, संस्कारों की संख्या, प्रत्येक संस्कार की विधि तथा वे व्यक्ति जो उन्हें कर सकते हैं एवं वे व्यक्ति जिनके लिए वे किये जाते हैं। संस्कारों का उद्देश्य-मनु (२।२७-२८) के अनुसार द्विजातियों में माता-पिता के वीर्य एवं गर्भाशय के दोषों को गर्भाधान-समय के होम तथा जातकर्म (जन्म के समय के संस्कार) से, चौल (मुण्डन संस्कार) से तथा मूंज Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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