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धर्मशास्त्र का इतिहास विषय में वर्णन है। कौटिल्य ने कई प्रकार के दासों का वर्णन किया है, यथा-ध्वजाहृत (युद्ध में बन्दी), आत्मविक्रयी (अपने को बेचनेवाला), उदरदास (या गर्भदास, जो दास द्वारा दासी से उत्पन्न हो), आहितिक (ऋण के) कारण बना हुआ), दण्डप्राणित (राजदण्ड के कारण)। मनु ने सात प्रकार के दासों का वर्णन किया है, यथा-(१) युद्धबन्दी, (२) भोजन के लिए बना हुआ, (३) दासीपुत्र, (४) खरीदा हुआ, (५) माता या पिता द्वारा दिया हुआ, (६) वसीयत में प्राप्त, (७) राजदण्ड भुगतान के लिए बना हुआ (मनु ८१४१५)।
नारद (अभ्युपेत्याशुश्रूषा) एवं कात्यायन ने दासत्व के विषय में विस्तार के साथ लिखा है। नारद ने शुश्रूषक (जो दूसरे की सेवा करता है) को पाँच वर्गों में बाँटा है-(१) वैदिक छात्र, (२) अन्तेवासी (नवसिखुवा), (३) अधिकर्मकृत् (मेट या काम करनेवालों को देखनेवाला), (४) मृतक (नौकर, वेतन पर काम करनेवाला) एवं (५) दास। इनमें प्रथम चार को कर्मकर कहा जाता था और वे सभी पवित्र कामों को करने के लिए बुलाये जाते
न्त दासों को सभी प्रकार के कार्य करने पडते थे, यथा घर बहारना,गन्दे गडढों. मार्ग, गोबर-स्थलों को स्वच्छ करना, गुप्तांगों को खुजलाना या स्पर्श करना, मलमूत्र फेंकना आदि (श्लोक ६७)। नारद ने दासों के १५ प्रकार बताये हैं, यथा (१) घर में उत्पन्न, (२) खरीदा हुआ, (३) दान या किसी अन्य प्रकार से प्राप्त, (४) वसीयत में प्राप्त, (५) अकाल में रक्षित, (६) किसी अन्य स्वामी द्वारा प्रतिश्रुत, (७) बड़े ऋण से युक्त, (८) युद्धबन्दी, (९) बाजी में विजित, (१०) 'मैं आपका हूँ' कहकर दासत्व ग्रहण करनेवाला, (११) संन्यास से च्युत, (१२) जो अपने से कुछ दिनों के लिए दास बने, (१३) भोजन के लिए बना हुआ, (१४) दासी के प्रेम से आकृष्ट दास (बडवाहृत) एवं (१५) अपने को बेच देनेवाला।
नारद (श्लोक ३०) एवं याज्ञवल्क्य (२११८२) ने दासों के विषय में एक विधान यह बताया है कि यदि वे अपने स्वामी को किसी आसन्न प्राणलेवा कठिनाई से बचा लें तो वे छूट सकते हैं और (नारद ने जोड़ दिया है) पुत्र की भांति वसीयत में भाग पा सकते हैं। संन्यासपतित व्यक्ति राजा का दास होता है (याज्ञ० २।१८३) । याज्ञवल्क्य (२११८३) तथा नारद (३९) के मत से वर्णों के अनुसार ही दास बन सकते हैं, यथा ब्राह्मण के अतिरिक्त तीनों वर्ण ब्राह्मण के, वैश्य या शूद्र क्षत्रिय के दास हो सकते हैं, किन्तु क्षत्रिय किसी वैश्य या शूद्र का या वैश्य शूद्र का दास नहीं हो सकता। कात्यायन के अनुसार ब्राह्मण किसी ब्राह्मण का भी दास नहीं हो सकता, किन्तु यदि वह होना ही चाहे तो किसी चरित्रवान् एवं वैदिक ब्राह्मण का ही, और वह भी केवल पवित्र कार्य करने के लिए हो सकता है। कात्यायन ने यह भी लिखा है (७२१) कि संन्यास-च्युत ब्राह्मण को राज्य से निकाल बाहर करना चाहिए, किन्तु संन्यास-भ्रष्ट क्षत्रिय एवं वैश्य व्यक्ति राजा का दास होता है। दक्ष (७।३३) ने तो यह भी लिखा है कि संन्यास-च्युत ब्राह्मण के मस्तक पर कुत्ते के पैर का चिह्न अंकित कर देना चाहिए।
__कौटिल्य (३।१३) एवं कात्यायन (७२३) के अनुसार यदि स्वामी दासी से मैथुन करे और सन्तानोत्पत्ति हो जाय तो दासी एवं पुत्र को दासत्व से छुटकारा मिल जाता है।
व्यवहारमयूख (पृ० ११४) में आया है कि यदि गोद लिये गये व्यक्तियों के चूडाकरण एवं उपनयन संस्कार
५. म्लेच्छानामदोषः प्रजा विक्रेतुमाधातुं वा । न त्वेवार्यस्य वासभावः। कौटिल्य ३॥१३ ।
६. स्वतन्त्रस्यात्मनो दानाद् दासत्वं दासव भृगुः। त्रिषु वर्णेषु विज्ञेयं दास्यं विप्रस्य न क्वचित् ॥ वर्णानामानुलोम्येन दास्यं न प्रतिलोमतः । अपराक (पृ०७८६) द्वारा उद्धृत कात्यायन; मिलाइए नारद (अभ्यु. ३९)।
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