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दासप्रथा
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दी" (ऋ० ८॥५६॥३) । इस प्रकार कई उदाहरण प्रस्तुत किये जा सकते हैं।' तैत्तिरीय संहिता (२।२।६।३; ७।५।१०।१) एव उपनिषदों में भी दासियों की चर्चा है । ऐतरेय ब्राह्मण (३९१८) में आया है कि एक राजा ने राज्याभिषेक करानेवाले पुरोहित को १०,००० दासियाँ एवं १०,००० हाथी दिये। कठोपनिषद् (११११२५) में भी दासियों की चर्चा है। वहदारण्यकोपनिषद् (४१४१२३) में आया है कि जनक ने याज्ञवल्क्य से ब्रह्मविद्या सीख लेने के पश्चात् उनमे कहा कि "मैं विदेहों के साथ अपने को आप के लिए दास होने के हेतु दान-स्वरूप दे रहा हूँ।" छान्दोग्योपनिषद् में आया है--"इस संसार में लोग गायों एवं घोड़ों, हाथियों एवं सोने, पत्नियों एवं दासियों, खेतों एवं घरों को महिमा कहते हैं (७।२४।२)।" इसी प्रकार छान्दोग्योपनिषद् के ५।१३।२ तथा बृहदारण्यकोपनिषद् के ६।२७ में भी दासियों की चर्चा है। इन चर्चाओं से पता चलता है कि वैदिक काल में पुरुष एवं नारियों का दान हुआ करता था और भेटस्वरूप दिये गये लोग दास माने जाते थे।
___ यद्यपि मन (११९१ एवं ८१४१३ एवं ४१४) ने आदेशित किया है कि शूद्रों का मुख्य कर्तव्य है उच्च वर्णों की मेवा करना. किन्तु इममे यह नहीं स्पष्ट हो पाता कि शुद्र दास हैं। जैमिनि (६७६) ने शूद्र के दान की आज्ञा नहीं दी है।
गृह्यसूत्रों में माननीय अतिथियों के चरण धोने के लिए दासों के प्रयोग की चर्चा हुई है, किन्तु स्वामी को दासों के साथ मानवीय व्यवहार करने का आदेश दिया गया है। आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।४।९।११) में आया है कि अचानक अतिथि के आ जाने पर अपने को, स्त्री या पुत्र को भूखा रखा जा सकता है, किन्तु उस दास को नहीं, जो सेवा करता है। महाभारत में दासों एवं दासियों के दान की प्रभूत चर्चा हुई है (मभापर्व ५२।४५; वनपर्व २३३।४३ एवं विराटपर्व १८१२१ में ८८००० स्नातकों में प्रत्येक स्नातक के लिए ३० दासियों के दान की चर्चा है)। वन्य ने अत्रि को एक सहस्र सुन्दर दासियाँ दी (वनपर्व १८५।३४; द्रोणपर्व ५७४५-९)। मनु (८।२९९-३००) ने शारीरिक दण्ड की व्यवस्था में दास एवं पुत्र को एक ही श्रेणी में रखा है।
मेगस्थनीज ने दासत्व के विषय में चर्चा नहीं की है। वह अपने देश यूनान के दासों से भली भाँति परिचित था, अतः यदि भारत में उन दिनों, अर्थात् ईसापूर्व चौथी शताब्दी में, दासों की बहुलता होती तो वह भारतीय दासों की चर्चा अवश्य करता। उसने लिखा है कि भारतीय दास नहीं रखते (देखिए मैक्रिडिल, पृ० ७१ एवं स्ट्रैबो १५।११५४)। किन्तु उन दिनों दास थे, इसमें कोई सन्देह नहीं है। अशोक ने अपने नवें शिलाभिलेख के प्रज्ञापन में दासों एवं नौकरों की स्पष्ट चर्चा की है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र (३॥१३) में दासों की महत्त्वपूर्ण व्यवस्थाओं के
३. शतं मे गर्दभानां शतमूर्णावतीनाम् । शतं दासां अति लजः॥ ऋ० ८५६॥३; यो मे हिरण्यसन्दृशो दश राको अमंहत । अपस्पदा इन्धस्य कृष्टयश्चमम्ना अभितो जनाः॥ ऋ० ८।५।३८, अदान्मे पौरुकुत्स्यः पञ्चाशतं असवर पूर्वमूनाम्। १० ८।१९।३६ ।
४. उपकुम्भानषिनिषाय दास्यो मार्जालीयं परिनृत्यन्ति पदो निम्नतीरिवं मषु गायन्त्यो मधुवै देवानां परममन्नाथम् । ते० सं०७५।१०।१; आत्मनो वा एष मात्रामाप्नोति यो उभयावत्प्रतिगृह्णात्यश्वं वा पुरुष वा वैश्वानरं द्वादशकपालं निर्वपेवुभयावत्प्रतिगृह्य । ते० सं० २।२।६।३, सोहं भगवते विदेहान् ददामि मां चापि सह दास्याय। बृहदारण्यकोपनिषद् ४।४।२३; गो-अश्वमिह महिमेत्याचक्षते हस्तिहिरण्यं दासभार्य क्षेत्राण्यायतनानीति । छान्दोग्यो. पनिषत् ॥२४॥२॥
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