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अध्याय ५ दासप्रथा
पुराकालीन सभी देशों और तथाकथित उन्नत एवं सभ्य राष्ट्रों के सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में दासप्रथा या गुलामी एक स्थायी प्रथा के रूप से प्रचलित थी। बेबीलोन, मिस्र, यूनान, रोम तथा अन्य यूरोपीय राष्ट्रों में दासत्व पाया जाता था।' इंग्लैण्ड एवं संयक्त राज्य अमेरिका ने दामों के व्यापार में अमानषिकता का जघन्य उदाहरण उपस्थित कर दिया। इतिहास, समाज-शास्त्र, आचार-शास्त्र, मानव-शास्त्र आदि सामाजिक विषयों के विद्वानों से यह बात छिपी नहीं है कि अपने को अति सभ्य कहनेवाले ईसाई देश इंग्लैण्ड एवं अमेरिका ने दासों के व्यापार द्वारा मानवता का हनन युगों तक किया। वे बड़ी नृशंसता के साथ अफ्रीका के मूल निवासियों को जहाजों में भरभरकर यत्र-तत्र ले गये और खानों एवं खेतों में काम करने के लिए उनका क्रय-विक्रय किया। अधिकांश वे जलमार्ग में ही मर जाते थे और जो बचते उनको पशुओं के समान रखा जाता था। आधुनिक युग में दासता का यह उदाहरण सम्य मानवता का कलंक है। आश्चर्य तो यह है कि दासत्व को इस प्रथा पर मसीह के धर्मावलम्बी राष्ट्रों ने राजकीय मुहर दे डाली और परम आश्चर्य यह है कि कृपालु एवं करण भावप्रेरित ईसाई धर्म के बहुत-से ठेकेदारों ने, जिनमें कैथोलिक एवं प्रोटेस्टेंट दोनों सम्मिलित थे, इस प्रथा को मान्यता दी! २ ब्रिटिश राज्य में सन् १८३३ में तथा ब्रिटिश भारत में सन् १८४३ में दासप्रथा के विरुद्ध नियम स्वीकृत हुए।
. हमने बहुत पहले ही देख लिया है कि ऋग्वेद का 'दास' शब्द आर्यों के शत्रुओं के लिए प्रयुक्त हुआ है। यह सम्भव है कि जब दास लोग पराजित होकर बन्दी हो गये तो वे गुलाम के रूप में परिणत हो गये। ऋग्वेद के कई मन्त्रों में दासत्व की झलक मिलती है; “तू ने मुझे एक सौ गधों, एक सौ ऊन वाली भेड़ों और एक सौ दासों की भेट
१. प्राक्कालीन लोगों द्वारा दासत्व (गुलामी की प्रथा) जीवन का एक स्थिर एवं स्वीकृत तत्व माना जाता था और तब इसमें कोई नैतिक समस्या नहीं उलझी हुई थी। बेबीलीन क्षेत्र की सुमेर संस्कृति में दासता एक स्वीकृत संस्था मानी जाती थी, जैसा कि ईसा-पूर्व चौथी शताब्दी के सुमेर-विधान से पता चलता है। देखिए, इनसाइक्लोपीडिया आफ सोशल साइंसेज, भाग १४, पृ०७४ ।
२. "This system of slavery, which at least in the British Colonies and slave states surpassed in cruelty the slavery of any pagan country ancient and modern, was not only recognised by Christian Governments, but was supported by the large bulk of the clergy, Catholic and Protestant alike." Vide "Origin and Development of the moral ideas" Vol. I, p. 711 (1912) by Westermarck.
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