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________________ अस्पृश्यता १७१ हैं जहाँ छुआछूत का कोई भेद नहीं माना जाता-संग्राम में, हाट (बाजार) के मार्ग में, धार्मिक जुलूसों, मन्दिरों, उत्सवों, यज्ञों, पूत स्थलों, आपत्तियों में, ग्राम या देश पर आक्रमण होने पर, बड़े जलाश य के किनारे, महान् पुरुषों की उपस्थिति में, अचानक अग्नि लग जाने पर या महान् विपत्ति पड़ने पर स्पर्शास्पर्श पर ध्यान नहीं दिया जाता।' स्मृत्यर्थसार ने अस्पृश्यों द्वारा मन्दिर-प्रवेश की बात भी लिखी है, यह आश्चर्य का विषय है। विष्णुधर्मसूत्र (५।१०४) के अनुसार तीन उच्च वर्गों का स्पर्श करने पर अस्पृश्य को पीटे जाने का दण्ड मिलता था। किन्तु याज्ञवल्क्य (२।२३४) ने चाण्डाल द्वारा ऐसा किये जाने पर केवल १०० पण के दण्ड की व्यवस्था दी है। अस्पृश्यों के कुओं या बरतनों में पानी पीने पर, उनका दिया हुआ पका-पकाया या बिना पकाया हुआ भोजन ग्रहण करने पर, उनके साथ रहने पर या अछूत नारी के साथ संभोग करने पर शुद्धि और प्रायश्चित्त की व्यवस्था दी गयी है, जिसे हम प्रायश्चित्त के प्रकरण में पढ़ेंगे। तथाकथित अछूत लोग पूजा कर सकते थे। जब यह कहा जाता है कि प्रतिलोम लोग धर्महीन हैं (याज्ञ० १२९३, गौतम ४।१०) तो इसका तात्पर्य यह है कि वे उपनयन आदि वैदिक क्रिया-संस्कार नहीं कर सकते; वास्तव में वे देवताओं की पूजा कर सकते थे। निर्णयसिन्धु द्वारा उद्धृत देवीपुराण के एक श्लोक से ज्ञात होता है कि अन्त्यज लोग भैरव का मन्दिर बना सकते थे। भागवत पुराण (१०७०) में आया है कि अन्त्यावसायी लोग हरि के नाम या स्तुतियों को सुनकर उनके नाम का कीर्तनकर, उनका ध्यान कर पवित्र हो सकते हैं, किन्तु जो उनकी मूर्तियों को देखें या स्पर्श करें वे अपेक्षाकृत अधिक पवित्र हो सकते हैं। दक्षिण भारत में आलवार वैष्णव सन्तों में तिरुप्पाण आलवार अछूत जाति के थे और नम्मालवार तो वेल्लाल थे। मिताक्षरा (याज्ञ० ३।१६२) ने लिखा है कि प्रतिलोम जातियां (जिनमें चाण्डाल भी सम्मिलित हैं) व्रत कर सकती हैं। स्वतन्त्र भारत में अन्य सामाजिक प्रश्नों एवं समस्याओं के समाधान के साथ अस्पृश्यता के प्रश्न का भी समाधान होता जा रहा है। महात्मा गान्धी के प्रयत्नों के फलस्वरूप हरिजनों को राजनीतिक सुविधाएँ प्राप्त हुई हैं। आज उन्हें बहुत बढ़ावा दिया जाने लगा है। राजकीय कानूनों के बल पर हरिजन लोग मन्दिर-प्रवेश भी कर रहे हैं। आशा की जाती है कि कुछ वर्षों में अस्पृश्यता नामक कलंक भारत देश से मिट जायगा। ९. संग्रामे हट्टमार्गे च यात्रादेवगृहेषु च। उत्सवक्रतुतीर्येषु विप्लवे ग्रामदेशयोः॥ महाजलसमीपेषु महाजनबरेषु च। अग्न्युत्पाते महापत्सु स्पृष्टास्पृष्टिर्न दुष्यति ॥ प्राप्यकारीन्द्रियं स्पष्टमस्पृष्टि वितरेन्द्रियम् । तयोश्च विषयं प्राहुः स्पृष्टास्पृष्ट्यभिषानतः ॥ स्मृत्यर्थसार, पृ० ७९।। १०. अतः स्त्रीशूद्रयोः प्रतिलोमजानां च त्रैवर्णिकवद् व्रताधिकार इति सिद्धम् । यत्तु गौतमवचनं प्रतिलोमा धर्महीना इति, तदुपनयनादिविशिष्टधर्माभिप्रायम्। मिताक्षरा (याज्ञवल्क्य ३।२६२)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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