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________________ १७० धर्मशास्त्र का इतिहास नहीं करना चाहिए, यदि भोजन करते समय स्पर्श हो जाय तो भोजन करना बन्द कर देना चाहिए और भोजन को फेंककर स्नान कर लेना चाहिए। बात करने के विषय में विष्णुधर्मसूत्र ( २२ एवं ७६ ) को देखिए । आजकल अन्त्यजों में म्लेच्छों, धोबियों, बाँस का काम करने वालों (धरकारों), मल्लाहों, नटों को कुछ प्रान्तों में अस्पृश्य नहीं माना जाता। यही बात मेघातिथि एवं कुल्लूक के समय में पायी जाती थी ।. विभेद की भावना एवं संस्कारोचित पवित्रता की धारणा ने अन्त्यजों एवं कुछ हीन जातियों को अस्पृश्य बना डाला। प्राचीन स्मृतियों से यह नहीं स्पष्ट हो पाता कि चाण्डालों की छाया अपवित्र मानी जाती रही है । मनु और विष्णुधर्मसूत्र ( २३।५२ ) ने लिखा है कि मक्खियों, हौज की बूंदों, (मनुष्य की) छाया, गाय, अश्व, सूर्यकिरण, धूल, पृथिवी, हवा एवं अग्नि को पवित्र मानना चाहिए। याज्ञवल्क्य ( ११९३ ) एवं मार्कण्डेयपुराण (३५।२१ ) में भी यह बात पायी जाती है । मनु (४।१३०) ने लिखा है कि किसी देवता, अपने गुरु, राजा, स्नातक, अपने अध्यापक, भूरी गाय, वेदाध्यायी की छाया को जान-बूझकर पार नहीं करना चाहिए। यहाँ पर चाण्डाल की छाया की कोई चर्चा नहीं हुई है। मनु एवं याज्ञवल्क्य ने यह नहीं लिखा है कि चाण्डाल की छाया अपवित्र है । अपरार्क ने एक श्लोक उद्धृत किया हैं जिसका अर्थ यह है कि चाण्डाल या पतित की छाया अपवित्र नहीं है। आगे चलकर क्रमश: कुछ स्मृतियों ने चाण्डाल की छाया को अपवित्र मान लिया और ब्राह्मण को छाया स्पर्श से स्नान करना आवश्यक माना गया। मिताक्षरा (याज्ञ० ३।३०) ने व्याघ्रपाद का श्लोक उद्धृत किया है, जिसका अर्थ है कि यदि चाण्डाल या पतित गाय की पूँछ के बराबर की दूरी पर आ जायँ तो हमें स्नान करना चाहिए। कुछ ऐसी ही बात बृहस्पति ने भी कही है। " याज्ञवल्क्य (१।१९४ ) ने लिखा है कि यदि सड़क पर चाण्डाल चले तो वह चन्द्र तथा सूर्य की किरणों एवं हवा से पवित्र हो जाती है। उन्होंने ( १।१९७ ) पुनः लिखा है कि यदि जनमार्ग या कच्चे मकान पर चाण्डाल, कुत्ते एवं कौए आ जायें तो उसकी मिट्टी एवं जल हवा के स्पर्श से पवित्र हो जायँगे। इस प्रकार के नियमों से स्पष्ट है कि स्मृतियों के जनमार्ग सम्बन्धी प्रतिबन्ध तर्कयुक्त ही हैं, मलावार के ब्राह्मणों तथा दक्षिण भारत के कुछ स्थानों की भाँति वे कठोर नहीं हैं। मलावार में उच्च वर्णों एवं अस्पृश्यों के पृथक्-पृथक् मार्ग रहे हैं। स्मृतिकारों ने कुछ जातियों की अस्पृश्यता के विषय में सामान्य नियमों में अपवाद भी बताये हैं। अत्रि (२४९) ने लिखा है कि मन्दिर, देवयात्रा, विवाह, यज्ञ एवं सभी उत्सवों में किसी अस्पृश्य का स्पर्श अस्पृश्यता का द्योतक नहीं हो सकता। यही बात शातातप, बृहस्पति आदि ने भी कही है । स्मृत्यर्थसार ने उन स्थानों के नाम गिनाये अतः ६. चाण्डालं पतितं म्लेच्छं मद्यभाण्डं रजस्वलाम् । द्विजः स्पृष्ट्वा न भुग्जीत भुज्जानो यदि संस्पृशेत् । परं न भुग्जीत त्यक्त्वानं स्नानमाचरेत् ॥ अत्रि २६७ - ३६९ ( आनन्दाश्रम संस्करण) । ७. यस्तु छायां श्वपाकस्य ब्राह्मणो ह्यधिरोहति । तत्र स्नानं प्रकुर्वीत घृतं प्राश्य विशुष्यति ॥ अत्रि २८८२८९, अंगिरा, याज्ञ० ३।३० में मिताक्षरा द्वारा उद्धृत, अपार्क, पृष्ठ ९२३; अपरार्क (पू० ११९५ ) ने ऐसा श्लोक शातातप का कहा है । औशनसस्मृति ने भी यही बात कही है। युगं च द्वियुगं चैव त्रियुगं च चतुर्युगम्। चण्डालसूतिकोवक्यापतितानामषः क्रमात् ॥ बृहस्पति (याज्ञ० ३।३० पर मिताक्षरा की व्याख्या में उद्धृत); सूतिकापतितोबक्याचण्डालश्च चतुर्थकः । यथाक्रमं परिहरेबेकद्वित्रिचतुर्थकम् ॥ व्यास (स्मृतिचन्द्रिका, भाग १, पृष्ठ १७ में उद्धृत) । ८. देवयात्राविवाहेषु यज्ञप्रकरणेषु च । उत्सवेषु च सर्वेषु स्पृष्टास्पृष्टिनं विद्यते ।। अत्रि २४९ । ग्रामे लु यत्र संस्पृष्टिर्यात्रायां कलहादिषु । ग्रामसन्दूषणे चैव स्पृष्टिदोषो न विद्यते ॥ शातातप (स्मृतिचन्द्रिका, भाग १, पृ० ११९ में उद्धृत) | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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