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अस्पृश्यता
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तथा कुछ वनस्पतियों या ओषधियों के स्पर्श पर स्नान की व्यवस्था बतायी है। आपस्तम्ब (२।४।९।५) ने लिखा है कि वैश्वदेव के उपरान्त प्रत्येक गृहस्थ को चाहिए कि वह चाण्डालों, कुत्तों एवं कौओं को भोजन दे। यह बात आज भी वैश्वदेव की समाप्ति के उपरान्त पायी जाती है। प्राचीन हिन्दू लोग अस्वच्छता से मयाकुल रहा करते थे, अतः कुछ व्यवसायों को, यथा झाडू देने, चर्मशोधन, श्मशान-रक्षा आदि को बुरे एवं अस्वच्छ व्यवसायों में गिनते थे। इस प्रकार का पृथक्त्व बुरा नहीं माना जा सकता। अस्पृश्यता के भीतर जो मान्यता एवं धारणा पायी जाती है, वह मात्र धार्मिक एवं क्रिया-संस्कार-सम्बन्धी है। हिन्दू के घर में मासिक-धर्म के समय माता, बेटी, बहिन, स्त्री, पतोहू आदि सभी अस्पृश्य मानी जाती हैं। सूतक के समय अपना परम प्रिय मित्र भी अस्पृश्य माना जाता है। एक व्यक्ति अपने पुत्र को भी, जिसका यज्ञोपवीत न किया गया हो, भोजन करने के समय स्पर्श नहीं करता। प्राचीन काल में बहुत-से व्यवसाय वंशानुक्रमिक थे, अतः क्रमशः यह विचार ही घर करता चला गया कि वे लोग, जो ऐसी जाति के होते हैं जो गन्दा व्यवसाय करती है, जन्म से ही अस्पृश्य हैं। आज तो स्थिति यहाँ तक आ गयी है कि चाहे कुछ जातियों के लोग गन्दा व्यवसाय करें या न करें, जन्म से ही अस्पृश्य माने जाते हैं। आश्चर्य है ! किन्तु पहले यह बात नहीं थी। आदि काल में व्यवमाय से लोग स्पृश्य या अस्पृश्य माने जाते थे। यह बात कुछ सीमा तक मध्य काल में भी पायी जाती थी, क्योंकि स्मृतिकारों में इस विषय में मतैक्य नहीं पाया जाता। प्राचीन धर्मसूत्रों ने केवल चाण्डाल को ही अस्पृश्य माना है । गौतम (४।१५ एवं २३) ने लिखा है कि चाण्डाल ब्राह्मणी से शूद्र द्वारा उत्पन्न सन्तान है अतः वह प्रतिलोमों में अत्यन्त गहित प्रतिलोम है। आपस्तम्ब (२।१।२।८-९) ने लिखा है कि चाण्डालस्पर्श पर सवस्त्र स्नान करना चाहिए, चाण्डाल-संभाषण पर ब्राह्मण से बात कर लेनी चाहिए, चाण्डाल-दर्शन पर सूर्य या चन्द्र या तारों को देख लेना चाहिए। मनु (१०॥३६ एवं ५१) ने केवल अन्ध्र, मेद, चाण्डाल एवं श्वपच को गाँव के बाहर तथा अन्त्यावसायी को श्मशान में रहने को कहा है। इससे स्पष्ट है कि अन्य हीन जातियाँ गांव में रह सकती थीं। अपरार्क द्वारा उद्धृत हारीत का वचन यों है-यदि किसी द्विजाति का कोई अंग (सिर को छोड़कर) रंगरेज, मोची, शिकारी, मछुआ, धोबी, कसाई, नट, अभिनेता जाति के किसी व्यक्ति, तेली, कलवार (सुराजीवी), जल्लाद, ग्राम्य सूकर या मुरगा, कुत्ता से छू जाय तो उसे उस अंग को घोकर एवं जलाचमन करके पवित्र कर लेना चाहिए। मनु (१०।१३) की व्याख्या में मेधातिथि का स्पष्ट कहना है कि प्रतिलोमों में केवल चाण्डाल ही अस्पृश्य है, अन्य प्रतिलोमों, यथा सूत, मागध, आयोगव, वैदेहक एवं क्षत्ता के स्पर्श से स्नान करना आवश्यक नहीं। यही बात कुल्लूक में भी पायी जाती है। मनु (५।८५) एवं अंगिरा (१५२) ने दिवाकीर्ति (चाण्डाल), उदक्या (रजस्वला), पतित (पाप करने पर जो निष्कासित हो गया हो या कुजाति में आ गया हो), सूतिका (पुत्रोत्पत्ति करने पर नारी), शव और शव को छू लेनेवाले को छूने पर स्नान की व्यवस्था दी है। अतः मनु के मत से केवल चाण्डाल ही अस्पृश्य है। किन्तु कालान्तर में अस्पृश्यता ने कुछ अन्य जातियों को भी स्पर्श कर लिया। कुछ कट्टर स्मृतिकारों ने तो यहाँ तक लिख दिया कि शुद्र के स्पर्श से द्विजों को स्नान कर लेना चाहिए।
'अस्पृश्य' शब्द का प्रयोग विष्णुधर्मसूत्र (१०४) एवं कात्यायन ने किया है। चाण्डालों, म्लेच्छों, पारसीकों को अस्पृश्यों की श्रेणी में रखा गया है, यह बात उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो गयी होगी। अत्रि (२६७-२६९) ने लिखा है कि यदि द्विज चाण्डाल, पतित, म्लेच्छ, सुरापात्र, रजस्वला को स्पर्श कर ले तो (उसे बिना स्नान किये) भोजन
५. यथा चाण्डालोपस्पर्शने संभाषायां दर्शने व दोषस्तत्र प्रायश्चित्तम् । अवगाहनमपामुपस्पर्शने संभाषायां ब्राह्मणसम्भाषणं वर्शने ज्योतिषां वर्शनम् । आपस्तम्ब २२१०२८-९।
धर्म० २२
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