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________________ १६८ धर्मशास्त्र का इतिहास ज्ञात होता है कि वे चाण्डालों एवं मृतपों को शूद्रों में गिनते थे। मनु (१०।४१) ने घोषणा की है कि सभी प्रतिलोम संतान शूद्र हैं (देखिए, शान्तिपर्व १९७।२८ भी)। क्रमशः शूद्रों एवं चाण्डाल आदि जातियों में अन्तर पड़ता गया। ___ अस्पृश्यता केवल जन्म से ही नहीं उत्पन्न होती, इसके उद्गम के कई स्रोत हैं। भयंकर पापों अर्थात् दुष्कर्मों से लोग जातिनिष्कासित एवं अस्पृश्य हो जा सकते हैं। मनु (९।२३५-२३९) ने लिखा है कि ब्रह्महत्या करनेवाले, ब्राह्मण के सोने की चोरी करनेवाले या सुरापान करनेवाले लोगों को जाति से बाहर कर देना चाहिए, न तो कोई उनके साथ खाये, न उन्हें स्पर्श करे, न उनकी पुरोहिती करे और न उनके साथ कोई विवाह-सम्बन्ध स्थापित करे, वे लोग वैदिक धर्म से विहीन होकर संसार में विचरण करें। अस्पृश्यता उत्पन्न होने का दूसरा स्रोत है धर्मसम्बन्धी घृणा एवं विद्वेष, जैसा कि अपरार्क (पृ० ९२३) एवं स्मृतिचन्द्रिका (पृ० ११८) ने षट्त्रिंशन्मत एवं ब्रह्माण्डपुराण से उद्धरण लेकर कहा है-"बौद्धों, पाशुपतों, जैनों, लोकायतों, कापिलों (सांख्यों), धन्युत ब्राह्मणों, शवों एवं नास्तिकों को छूने पर वस्त्र के साथ पानी में स्नान कर लेना चाहिए।" ऐसा ही अपरार्क ने भी कहा है। अस्पृश्यता उत्पन्न होने का तीसरा कारण है कुछ लोगों का, जो साधारणतः अस्पृश्य नहीं हो सकते थे, कुछ विशेष व्यवसायों का पालन करना, यथा देवलक (जो धन के लिए तीन वर्ष तक मूर्ति पूजा करता है), ग्राम के पुरोहित, सोमलता विक्रयकर्ता को स्पर्श करने से वस्त्र-परिधान सहित स्नान करना पड़ता था। चौथा कारण हैं कुछ परिस्थितियों में पड़ जाना, यथा रजस्वला स्त्री के स्पर्श, पुत्रोत्पन्न होने के दस दिन की अवधि में स्पर्श, सूतक में स्पर्श, शवस्पर्श आदि में वस्त्र सहित स्नान करना पड़ता था (मनु ५।८५)। अस्पृश्यता का पांचवाँ कारण है म्लेच्छ या कुछ विशिष्ट देशों का निवासी होना। इसके अतिरिक्त स्मृतियों के अनुसार कुछ ऐसे व्यक्ति जो गन्दा व्यवसाय करते थे, अस्पृश्य माने जाते थे, यथा कैवर्त (मछुआ), मृगयु (मृग मारनेवाला), व्याध (शिकारी), सौनिक (कसाई), शाकुनिक (पक्षी पकड़ने वाला या बहेलिया), धोबी, जिन्हें छुने पर स्नान करके ही भोजन किया जा सकता __ अस्पृश्यता-सम्बन्धी जो विधान बने थे, वे किसी जाति-सम्बन्धी विद्वेष के प्रतिफल नहीं थे, प्रत्युत उनके पीछे मनोवैज्ञानिक या धार्मिक धारणाएँ एवं स्वस्थता-सम्बन्धी विचार थे, जो मोक्ष के लिए परम आवश्यक माने गये थे, क्योंकि अंन्तिम छुटकारे (मोक्ष) के लिए शरीर एवं मन से पवित्र एवं स्वच्छ होना अनिवार्य था। आपस्तम्ब (१।५।१५।१६), वसिष्ठ (२३।३३), विष्णु (२२।६९) एवं वृद्धहारीत (११।९९-१०२) ने कुत्ते के स्पर्श २. षट्त्रिंशन्मतात्-बौद्धान् पाशुपतांश्चव लोकायतिकनास्तिकान् । विकर्मस्थान् द्विजान् स्पृष्ट्वा सर्वलो जलमाविशेत् ॥ अपरार्क, पृ० ९२३, स्मृतिच० १, पृ० ११८; मिता० (याज० ३।३०) ने ब्रह्माण्डपुराण से उदृत किया है, देखिए वृद्धहारीत ९।३५९, ३६३, ३६४; शान्तिपर्व ७६।६, आह्वायका देवलका नाक्षत्रा प्रामयाजकाः। एते ब्राह्मणचाण्डाला महापथिकपाचमाः॥ चण्डालभुक्कसम्लेच्छभिल्लपारसिकादिकम्। महापातंकिनश्चव स्पृष्ट्वा स्नायात्सलकम् ॥ वृदयाज्ञवल्क्य (अपराक द्वारा उद्धृत, १० ९२३)। ३. च्यवनः-श्वान श्वराकं प्रेतधूमं देवद्रव्योपजीविनं ग्रामयाजकं सोमविक्रयिणं यूपं चिति चितिकाष्ठं.... शवस्पृशं रजस्वला महापातकिनं शवं स्पृष्ट्वा सचलमम्भो वगाहोत्तोर्याग्निमुपस्पृश्य गायत्र्यष्टशतं जपेद् घृत प्राश्य पुनः स्नात्वा त्रिराचामेत् । मिताक्षरा, याज० ३३० एवं अपराक, पृ० ९२३ । ४. कैवर्तमृगयुष्याधसौनिशाकुनिकानपि। रजकं च तथा स्पृष्ट्वा स्नात्वाशनमाचरेत् ॥ संवर्त (अपगर्क, पृ० ११९६)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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