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अध्याय ४ अस्पृश्यता
भारतीय जाति-व्यवस्था पर लिखनेवाले लेखकों को भारतीय समाजविषयक अस्पृश्यता नामक व्यवस्था के अवलोकन से महान् आश्चर्य होता है। किन्तु उन्हें यह समझना चाहिए कि यह बात केवल भारत में ही नहीं पायी गयी है, प्रत्ते इसका परिदर्शन अन्य महाद्वीपों, विशेषतः अमेरिका, दक्षिण अफ्रीका में भी होता है। आज की अमेरिकी नीयो जाति भारतीय अस्पृश्य जाति से भी कई गुनी असह्य अयोग्यताओं एवं नियन्त्रणों से घिरी हुई है।
स्मृतियों में वर्णित अन्त्यजों के नाम आरम्भिक वैदिक साहित्य में भी आये हैं। ऋग्वेद (८।५।३८) में चर्मम्न (खाल या चाम शोधने वाले) एवं वाजसनेयी संहिता में चाण्डाल एवं प्रौल्कस नाम आये हैं। वप या वप्ता (नाई) शब्द ऋग्वेद में आ चुका है। इसी प्रकार वाजसनेयी संहिता एवं तैत्तिरीय ब्राह्मण में विदलकार या बिडलकार (स्मृतियों में वर्णित बुरुड) शब्द आया है। वाजसनेयी संहिता का वासस्पल्पूली (धोबिन) स्मृतियों के रजक शब्द का ही द्योतक है। किन्तु इन वैदिक शब्दों एवं नामों से कहीं भी यह संकेत नहीं मिलता कि ये अस्पृश्य जातियों के द्योतक हैं। केवल इतना भर ही कहा जा सकता है कि पोल्कस का सम्बन्ध बीभत्सा (वाजसनेयी संहिता ३०।१७) से एवं चाण्डाल का वायु (पुरुषमेध) से था, और पौल्कस इस ढंग से रहते थे कि उनसे घृणा उत्पन्न होती थी तथा चाण्डाल वायु (सम्भवतः श्मशान के खुले मैदान) में रहते थे। छान्दोग्योपनिषद् (५।१०७) में चाण्डाल की चर्चा है और वह तीन उच्च वर्गों की अपेक्षा सामाजिक स्थिति में अति निम्न था, ऐसा मान होता है। सम्भवतः चाण्डाल छान्दोग्य के काल में शूद्र जाति की निम्नतम शाखाओं में परिगणित था। वह कुत्ते एवं सूअर के सदृश कहा गया है। शतपथब्राह्मण (१२।४।१।४) में यज्ञ के सम्बन्ध में तीन पशु अर्थात् कुत्ते, सूअर एवं भेड़ अपवित्र माने गये हैं। यहाँ पर उसी सूअर की ओर संकेत है, जो गांव का मल आदि खाता है, क्योंकि मनु (३।२७०) एवं याज्ञवल्क्य (११२५९) की स्मृतियों से हमें इस बात का पता चलता है कि श्राद्ध में सूअर का मांस पितर लोग बड़े चाव से खाते हैं। अतः उपनिषद् वाले चाण्डाल को हम अस्पृश्य नहीं मान सकते। कुछ कट्टर हिन्दू वैदिक काल में भी चाण्डाल को अस्पृश्य ठहराते हैं और बृहदारण्यकोपनिषद् (१३) की गाथा का हवाला देते हैं। किन्तु इस गाथा से यह नहीं स्पष्ट किया जा सकता कि चाण्डाल अस्पृश्य थे। म्लेच्छों की भौति वे "दिशाम् अन्तः” नहीं थे, अर्थात् आर्य जाति की भूमि से बाहर नहीं थे।
. अब हम सूत्रों एवं स्मृतियों के साक्षियों का अवलोकन करें। आरम्भिक स्मृतियों का कहना है कि वण केवल चार हैं, पाँच नहीं (मनु १०।४; अनुशासनपर्व ४७।१८)। अतः जब आज कुछ लोग जो पंचमों अर्थात् निषादों, चाण्डालों एवं पोल्कसों की बात करते हैं तो वह स्मृतिसम्मत नहीं है। पाणिनि (२।४।१०) एवं पतञ्जलि से
१. चतुर्थ एकजातिस्तु शूद्रो नास्ति तु पञ्चमः। मनु १०।४; स्मृताश्च वर्णाश्चत्वारः पञ्चमो नाधिगम्यते। अनुशासनपर्व ४७॥१८॥
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