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वों के कर्तव्य, अयोग्यताएँ एवं विशेषाधिकार.
१६१ किसी आततायी ब्राह्मण को रोक रहा है और असावधानी या त्रुटि से उसे मार डालता है, तो वह राजा द्वारा दण्डित नहीं हो सकता, बल्कि उसे एक हलका प्रायश्चित्त करना पड़ेगा। स्पष्ट है, मिताक्षरा के कथनानुसार आततायी ब्राह्मण को भी मारना मना था। मेधातिथि (मनु ८१३५०-३५१) की भी यही सम्मति है। कुल्लूक (मनु ८ ३५०) ने लिखा है कि यदि भागकर भी अपने प्राण न बचाये जा सकें तो आक्रमणकारी गुरु या ब्राह्मण या किसी भी अन्य आततायी को मारा जा सकता है। अपरार्क (याज्ञ० ३।२२७) ने लिखा है कि आततायी ब्राह्मण को यदि किसी अन्य प्रकार से रोकना असम्भव है तो उसे मार डालने की व्यवस्था शास्त्रों में है, किन्तु यदि उसे दो-एक थप्पड़ मारकर रोका जा सके तब उसका प्राण हर लेना ब्रह्महत्या है। स्मृतिचन्द्रिका में भी कुछ ऐसी ही उक्ति है। व्यवहारमयूख ने कलियुग का सहारा लेकर किसी भी प्रकार के (यहां तक कि आततायी) ब्राह्मण की हत्या का विरोध किया है।
(१०) किसी ब्राह्मण को तर्जना देगा (डपटना) या मारने की धमकी देना या पीट देना या शरीर से चोट द्वारा रक्त निकाल देना भी बहुत प्राचीन काल से भर्त्सनीय माना जाता रहा है (तैत्तिरीय संहिता ६।१०।१-२) । गौतम (२२।२०-२२) में भी इसी प्रकार का आदेश पाया जाता है।
(११) कुछ अपराधों में अन्य वर्गों की अपेक्षा ब्राह्मण को कम दण्ड मिलता था, यथा गौतम (२१॥६१०) ने लिखा है--यदि किसी क्षत्रिय ने ब्राह्मण की भर्त्सना की तो दण्ड एक सौ कार्षापण का होता है, यदि वैश्य ऐसा करे तो १५० कापिण का; किन्तु यदि ब्राह्मण किसी क्षत्रिय या वैश्य के साथ ऐसा व्यवहार करे तो दण्ड क्रमशः केवल ५० तथा २५ कार्षापण का होता है, किन्तु यदि वह किसी शूद्र के साथ ऐसा करे तो उसे किसी प्रकार का दण्ड नहीं दिया जा सकता । इस विषय में मनु (८।२६७-२६८), नारद (वाक्पारुष्य, १५-१६) एवं याज्ञवल्क्य (२।२०६-२०७) के विचार एक-दूसरे से मिलते हैं, किन्तु मनु ने शूद्र की भर्त्सना करनेवाले ब्राह्मण पर १२ कार्षापण के दण्ड की व्यवस्था दी है। कुछ अपराधों में ब्राह्मणों को अधिक दण्ड दिया जाता था, यथा चोरी के मामले में शूद्र पर ८ कार्षापण का, वैश्य पर १६, क्षत्रिय पर ३२ और ब्राह्मण पर ६४, १०० या १२८ कार्षापण का दण्ड लगता था (गौतम २१११२-१४; मनु ८१३३७-३३८)।
(१२) गौतम (१३।४) के मतानुसार किसी अब्राह्मण द्वारा कोई ब्राह्मण साक्ष्य के लिए नहीं बुलाया सकता । यदि वह लेखपत्र में लिखित रूप से साक्षी ठहराया गया हो तो राजा उसे बला सकता है। नारद (ऋणादान, १५८) के अनुसार तप में लीन श्रोत्रिय लोग, बूढ़े लोग, तपस्वी लोग साक्ष्य के लिए नहीं बुलाये जा सकते। किन्तु गौतम के अनुसार ब्राह्मण द्वारा श्रोत्रिय बुलाया जा सकता है। मनु (८१६५) एवं विष्णुधर्मसूत्र (८॥२) ने भी श्रोत्रिय को साक्ष्य देने से मना किया है।
(१३) केवल कुछ ही ब्राह्मण श्राद्ध तथा देव-क्रिया-संस्कार के समय भोजन के लिए बुलाये जा सकते थे (गौतम १५।५ एवं ९; आपस्तम्ब २।७।१७।४; मनु ३॥१२४ एवं १२८; याज्ञ० १२२१७, २१९, २२१)।
(१४) कुछ यज्ञ केवल ब्राह्मण ही कर सकते थे, यथा सौत्रामणी एवं सत्र। किन्तु जैमिनि (६।६।२४२६) के अनुसार भृगु, शुनक एवं वसिष्ठ गोत्र के ब्राह्मण सत्र भी नहीं कर सकते थे। राजसूय यज्ञ केवल क्षत्रिय ही कर सकते थे।
(१५) ब्राह्मणों के लिए मृत्यु पर शोक करने (सूतक) की अवधियां अपेक्षाकृत कम थीं। गौतम (१४॥ १.४) के अनुसार ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों एवं शूद्रों के लिए शोकावधियाँ क्रम से १०, ११, १२ तथा ३० दिनों की थीं। यही बात वसिष्ठ (४१२७-३०), विष्णु (१२।१-४), मनु (५।८३), याज्ञवल्क्य (३३२२) में भी पायी जाती है। कालान्तर में सब के लिए शोकावधि १० दिनों की हो गयीं।
धर्म०-२१
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