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धर्मशास्त्र का इतिहास
(१९१५४), विष्णु (३५।१), याज्ञवल्क्य (३।२२७) ने भी ब्रह्महत्या को पाँच महापातकों में गिना है (भ्रूण= वेद के एक अंश का पाठक या गर्भ-वसिष्ठ घ० सू०, गौ० घ० सू०) । मनु ने (८३३८१) ब्रह्महत्या को गहिंततम पाप माना है।
क्या आततायी, हिंसक या भयानक अपराधी ब्राह्मण का प्राण-हरण किया जा सकता है ? इस विषय में स्मृतिकारों एवं निबन्धकारों में बड़ा मतभेद रहा है। मनु (४।१६२) ने एक सामान्य नियम बना डाला है कि अपने (वेद पढ़ातेवाले) गुरु, व्याख्याता (वेदार्थ बतानेवाले), माता-पिता, अन्य श्रद्धास्पद लोगों, ब्राह्मणों, गायों तथा तप में लगे हुए लोगों की हिंसा नहीं करनी चाहिए। उन्होंने पुनः लिखा है कि ब्राह्मण की हत्या करने पर कोई प्रायश्चित्त नहीं है (मनु ११३८९)। किन्तु स्वयं मनु (८१३५०-३५१ =विष्णु ५।१८९-१९० मत्स्यपुराण २२७।११५-११७ =वृद्ध-हारीत ९१३४५-३५०) ने पुनः कहा है कि आततायी को अवश्य मार डालना चाहिए, भले ही वह गुरु ही क्यों न हो, बच्चा या बूढ़ा या विद्वान् ब्राह्मण ही क्यों न हो। वसिष्ठधर्मसूत्र (३.१५-१८) में छः प्रकार के आततायियों के नाम आये हैं--(१) घर जला देनेवाला, (२) विष देनेवाला, (३) शस्त्र प्रहार करनेवाला, (४) लुटेरा, (५) भूमि छीननेवाला एवं (६) दूसरे की स्त्री छीननेवाला। इस विषय में बौधायन धर्मसूत्र (१।१०।१४) एवं शान्तिपर्व (१५।१५) के वचन भी स्मरणीय हैं । शान्तिपर्व (३४।१७ एवं १९) ने लिखा है कि यदि कोई शस्त्रधारी ब्राह्मण किसी को मारने के लिए रण में आता है तो जिस पर घात किया जाता है वह व्यक्ति उस ब्राह्मण की हत्या कर सकता है, चाहे वह ब्राह्मण वेदान्ती ही क्यों न हो। उद्योगपर्व (१७८१५१-५२), शान्तिपर्व (२२।५-६) भी इस विषय में अवलोकनीय हैं। विष्णुधर्मसूत्र (५।१९१-१९२), मत्स्यपुराण (२२७। ११७-११९) ने आततायियों के सात प्रकार बतलाये हैं। सुमन्तु (मिताक्षरा द्वारा याज्ञ० २।२१ की व्याख्या में उद्घत) ने लिखा है कि गाय एवं ब्राह्मण को छोड़कर सभी प्रकार के आततायियों को मार डालने में कोई पाप नहीं है। इसका अर्थ हुआ कि आततायी ब्राह्मण को मारने से पाप लगता है। कात्यायन (स्मृतिचन्द्रिका एवं अन्य निबन्धों में उद्धृत), भृगु एवं बृहस्पति ने भी आततायी ब्राह्मण को अवध्य माना है। इस विषय में टीकाकारों एवं निबन्धकारों के विश्लेषण में बहुत अन्तर पड़ गया है। याज्ञवल्क्य (३।२२२) की व्याख्या में विश्वरूप ने लिखा है कि वह व्यक्ति ब्राह्मण-हत्या का अपराधी है जो संग्राम में लड़ते हुए ब्राह्मण या आततायी ब्राह्मण को छोड़कर किसी अन्य प्रकार के ब्राह्मण को मारता है, या जो स्वयं अपने (लाभ के लिए किसी ब्राह्मण को मारता है या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा (उसे धन देकर) मरवाता है। विश्वरूप ने आगे यह भी लिखा है कि धन के लोभ से जो किसी ब्राह्मण को मारता है उसको पाप नहीं लगता, बल्कि उसको पाप लगता है जो मरवाता है। यह उसी प्रकार है जिस प्रकार कि यज्ञ करानेवाले को फल मिलता है न कि यज्ञ करनेवाले ऋत्विक् को। मिताक्षरा ने याज्ञवल्क्य (२।११) को व्याख्या में मनु (८।३५०-३५१) का हवाला देते हुए लिखा है कि यदि आत्म-रक्षा के लिए कोई
५७. देखिए, याज्ञवल्क्य ३२२२ पर विश्वरूप; याज्ञवल्क्य २।२१ मिताक्षरा, अपरार्क (पृ० १०४२-४) एवं स्मृतिचन्द्रिका (व्यवहार, पृ० ३१३-१५)।
५८. नाततायिवधे दोषोऽन्यत्र गोब्राह्मणात्। सुमन्तु (याज्ञ० २१२१ में मिताक्षरा द्वारा उक्त); आततायिनि चोत्कृष्टे तपःस्वाध्यायजन्मतः। वधस्तत्र तु नैव स्यात्पापे होने वधो भृगुः॥ कात्यायन (स्मृतिचन्द्रिका, व्यवहार, पृ० ३१५); आततायिनमुत्कृष्टं वृत्तस्वाध्यायसंयुतम् । यो न हन्यावधप्राप्तं सोऽश्वमेधफलं लभेत् ॥ बृहस्पति (स्मृतिचन्द्रिका, व्यवहार, पृ० ३१५)।
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