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धर्मशास्त्र का इतिहास उपर्युक्त विशेषाधिकारों के अतिरिक्त कुछ अन्य अधिकारों की भी चर्चा हुई है, यथा राजा सर्वप्रथम ब्राह्मण को अपना मुख दिखलाता और उसे प्रणाम करता था (नारद, प्रकीर्णक, ३५-३९); ९ या ७ व्यक्तियों के साथ मिल जाने पर ब्राह्मण को ही सर्वप्रथम मार्ग पाने का अधिकार था; भिक्षा के लिए ब्राह्मण को सबके घर में पहुँचने की छूट थी; ईंधन, पुष्प, जल आदि ब्राह्मण बिना पूछे ग्रहण कर सकता था; दूसरे की स्त्रियों से बात करने का उसे अधिकार प्राप्त था; बिना खेवा दिये ब्राह्मण नदी के आर-पार नाव पर आ-जा सकता था। व्यापार के सिलसिले में उसे 'अकर' (निःशुल्क) नौका-प्रयोग की छूट थी। ब्राह्मण यात्रा करते समय थक जाने पर यदि पास में कुछ न हो तो बिना पूछे दो ईख या दो कन्द आदि खेत से लेकर खा सकता था।
ब्राह्मणों के लिए कुछ बन्धन भी थे, जिनकी चर्चा पहले हो चुकी है।
शूद्रों को अयोग्यताएं--(१) शूद्र को वेदाध्ययन करने का आदेश नहीं था। इस बात पर बहुत-से स्मृतिकारों एवं निवन्धों ने वैदिक वचन उद्धृत किये हैं। एक श्रुतिवाक्य है--"(विधाता ने) गायत्री (छन्द) से ब्राह्मण को निर्मित किया, त्रिष्टुप् (छन्द) से राजन्य (क्षत्रिय) को, जगती (छन्द) से वैश्य को, किन्तु उसने शूद्र को किसी भी छन्द से निर्मित नहीं किया, अतः शूद्र (उपनयन) संस्कार के लिए अयोग्य है।"५९ उपनयन के उपरान्त वेदाध्ययन होता है, और वेद केवल तीन वर्गों के उपनयन की चर्चा करता है। शूद्रों के लिए वेदाध्ययन तो मना ही था, उनके समीप वेर्दाध्ययन करना भी मना था। किन्तु अति प्राचीन काल में वेदाध्ययन पर सम्भवतः इतना कड़ा नियन्त्रण नहीं था। छान्दोग्योपनिषद् (४।१-२) में एक कथा आयी है, जिसमें जानश्रुति पौत्रायण एवं रैक्व का वर्णन है और रैक्व ने जानश्रुति को शूद्र कहा है एवं उसे संवर्ग विद्या का ज्ञान किराया है। किन्तु शूद्रों के विरोध में बहुत-सी बातें कही जाती रही हैं। गौतम (१२-४) ने तो यहाँ तक लिखा है कि यदि शूद्र जान-बूझकर स्मरण करने के लिए वेद-पाठ सुने तो उसके कर्णकुहरों को सीसा और लाख से भर देना चाहिए, यदि उसने वेद पर अधिकार कर लिया है तो उसके शरीर को छेद देना चाहिए।
यद्यपि शूद्रों को वेदाध्ययन करना मना था, किन्तु वे इतिहास (महाभारत आदि) एवं पुराण सुन सकते थे। महाभारत (शान्तिपर्व ३२८।४९) ने लिखा है कि चारों वर्ण किसी ब्राह्मण पाठक से महाभारत सुन सकते हैं।"
५९. गायन्या ब्राह्मणमसृजत त्रिष्टुभा राजन्यं जगत्या वश्यं न केनचिच्छन्दसा शवमित्यसंस्कार्यों विज्ञायते। वसिष्ठ ४॥३, अपरार्क द्वारा उत, पृ० २३; अपरार्क ने यम को भी इस प्रकार उद्धृत किया है "न केनचित्समसृजच्छन्दसा तं प्रजापतिः।"
६०. वसन्ते ब्राह्मणमुपनयीत ग्रीष्मे राजन्यं शरदि वैश्यमिति । जैमिनि ने भी यही आधार लिया है (६३१॥ ३३)। शबर ने भी यही माना है। देखिए, आपस्तम्ब (१।११६)।
६१. अथापि यमगीता श्लोकानुदाहरन्ति । श्मशानमेतत्प्रत्यक्षं ये शूद्राः पादचारिणः। तस्माच्छूद्रसमीपे तु नाध्येतव्यं कदाचन ॥ वसिष्ठ १८।१३। देखिए गौ० १६३१८३१९; आप० १० सूत्र १।३।९।९; श्मशानवच्छूनपतितौ। या० १११४८; आदिपर्व, ६४।२०।।
६२. अय हास्य वेदमुपशृण्वतस्त्रपुजतुभ्यां श्रोत्रपूरणमुदाहरणे जिह्वाच्छेदो धारणे शरीरभेवः। गौतम १२।४; देखिए मृच्छकटिक ९।२१ 'वेदार्थान् प्राकृतस्त्वं वदसि न च ते जिह्वा निपतिता।'
६३. श्रावयेच्चतुरो वर्णान् कृत्वा ब्राह्मणमग्रतः। शान्तिपर्व ३२८१४९; और देखिए, आदिपर्व ६२।२२ एवं ९५८७।
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