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धर्मशास्त्र का इतिहास
सम्मान न प्राप्त होता और वह शताब्दियों तक अक्षुण्ण न चला जाता तब तक उन्हें इतनी महत्ता नहीं प्राप्त हो सकती थी। ब्राह्मणों को सैनिक बल नहीं प्राप्त था कि वे जो चाहते करते या कराते। यह तो उनकी जीवन-चर्या थी जो उन्हें इतनी महत्ता प्रदान कर सकी। ब्राह्मण ही आर्य-साहित्य के विशाल समुद्र को भरने वाले एवं अक्षुण्ण रखने वाले थे। युगों से जो संस्कृति प्रवाहित होती रही उसके संरक्षक ब्राह्मण ही तो थे। यह मानी हुई बात है कि सभी ब्राह्मण एक-से नहीं थे, किन्तु बहुत-से ऐसे थे जिन पर आर्यजाति की सम्पूर्ण संस्कृति का मार रखा जा सका और उन्होंने उसका विकास, संरक्षण एवं संवर्धन करने में अपनी ओर से कुछ भी उठा न रखा। इसी से आर्य जाति ब्राह्मणों के समक्ष सदैव नत रही है।
ब्राह्मणों के प्रमुख विशेषाधिकार थे शिक्षण कार्य करना, पौरोहित्य तथा धार्मिक कर्तव्य के रूप में दा ' ग्रहण करना। अब हम बहुत संक्षेप में उनके अन्य विशेषाधिकारों का वर्णन करेंगे।
(१) ब्राह्मण सबका गुरु माना जाता था, और यह श्रद्धा-पद उसे जन्म से ही प्राप्त था (आपस्तम्ब ११११११५) । वसिष्ठधर्मसूत्र ने भी ब्राह्मण को सर्वोच्च माना है और ऋग्वेद ( ९०११२) को अपने पक्ष में उद्धृत किया है।" मनु (१।३१ एवं ९४; ११९३; १०१३) ने ब्राह्मणों की सर्वोच्चता एवं महत्ता का वर्णन कई स्थानों पर किया है। आपस्तम्ब (१।४।१४।२३), मनु (२।१३५) एवं विष्णु (३२।१७) ने लिखा है कि १० वर्ष की अवस्था वाला ब्राह्मण १०० वर्ष वाले क्षत्रिय से अधिक सम्मान पाता है।"
(२) ब्राह्मणों का एक अधिकार था अन्य वर्गों के कर्तव्यों का निर्धारण करना, उनके सम्यक् आचरण की ओर संकेत करना एवं उनके जीविका-साधनों को बताना। राजा ब्राह्मणों द्वारा बताये हुए विधान के अनुसार शासन करता था (वसिष्ठ ११३९-४१; मनु ७।३७, १०।२)। यह बात काठकसंहिता (९।१६), तैत्तिरीय ब्राह्मण, ऐतरेय ब्राह्मण (३७५) में भी पायी जाती है।" यूनान के दार्शनिक प्लेटो ने दार्शनिकों को ही, जो सर्वगुण सम्पन्न थे, राजनीतिज्ञों एवं विधान-निर्माताओं में गिना है। प्लेटो के अनुसार सर्वोत्तम लोगों द्वारा निर्मित शासन (अरिस्टोक्रसी) ही एक आदर्श शासन-व्यवस्था कही जा सकती है।
(३) गौतम (११३१) ने लिखा है कि "राजा सर्वस्येष्टे ब्राह्मणवर्जम्", अर्थात् राजा ब्राह्मणों को छोड़कर सबका शासक है। किन्तु मिताक्षरा ने (याज्ञवल्क्य के २१४ की व्याख्या में) कहा है कि ऐसी उक्ति केवल ब्राह्मण की महत्ता बताने वाली है, क्योंकि समुचित कारण मिल जाने पर राजा ब्राह्मणों को भी दण्डित कर सकता है। गौतम के उपर्युक्त कथन की ध्वनि उनके पूर्व के आचार्यों के कथन में भी पायी जाती है, यथा वाजसनेयी संहिता (९।४०) एवं शतपथ ब्रा० (५।४।२।३ एवं ९।४।३।१६)।" सोमपान केवल ब्राह्मण ही कर सकते थे, क्षत्रिय सोम
४३. चत्वारो वर्णा ब्राह्मणक्षत्रियवश्यशूद्राः। तेषां पूर्वः पूर्वो जन्मतः भेयान्। आप० १२११५, प्रकृतिविशिष्टं चातुर्वण्य संस्कारविशेषाच्च । ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृत इत्यपि निगमो भवति । वसिष्ठ ४११-२; जातीनां ब्राह्मणः श्रेष्ठः। भीष्मपर्व १२१॥३५॥
४. दशवर्षश्च ब्राह्मणः शतवर्षश्च क्षत्रियः। पितापुत्रौ स्म तो विधि तयोस्तु ब्राह्मणः पिता॥ आप०१४१४॥२३॥
४५. ब्राह्मणो वै प्रजानामुपद्रष्टा । त० बा० २।२।१ एवं काठकसंहिता ९॥१६। तब वे ब्रह्मणः भत्रं वशमेति तव्राष्ट्र समृद्धं तद्वीरवदाहास्मिन्वीरो जायते। ऐ० बा० ३७।५।
४६. राजा सर्वस्येष्टे ब्राह्मणवर्जम् । गौ० ११३१; न च राजा सर्वस्येष्टे ब्राह्मणवर्णमिति गौतमवचनान्न ब्राह्मणो दण्य इति मन्तव्यम् । तस्य प्रशंसार्थत्वात् । मिताक्षरा, याश० २१४ पर।
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