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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास ब्राह्मण तथा निम्नकोटि के व्यवसाय-स्मृतियों के अनुसार कुछ कर्मों के करने और न करने से ब्राह्मण शूद्र के सदृश गिने जाते हैं (बौधायनधर्मसूत्र २।४।२०; वसिष्ठधर्मसूत्र ३१-२; मनु २।१६८, ८1१०२, २०१९२; पराशर ८१२४ आदि) । जो ब्राह्मण प्रातः एवं सन्ध्या काल की सन्ध्याएं नहीं करता उसे राजा द्वारा शूद्रोचित कार्य दिया जाना चाहिए।" जो ब्राह्मण श्रोत्रिय (वेदज्ञानी) नहीं हैं, जो वेदाध्ययन नहीं करते और जो अग्निहोत्र नहीं करते, वे शूद्र हैं (वसिष्ठ ३११-२)।" ब्राह्मण तथा भिक्षा–यहां अति ही संक्षेप में ब्राह्मण एवं भिक्षा के विषय में भी कुछ लिख देना अपेक्षित है। यथास्थान इस विषय में विस्तारपूर्वक लिखा जायगा। स्मृतियों ने केवल ब्रह्मचारियों एवं यतियों के लिए भिक्षा की व्यवस्था की है। बहुत ही सीमित दशाओं में अन्य लोगों को भी भिक्षा मांगने का अधिकार था। महाभारत में केकय के राजा ने बड़े दर्प के साथ उद्घोष किया है कि उनके राज्य में ब्रह्मचारियों को छोड़कर कोई अन्य मिक्षा नहीं मांगता (शान्तिपर्व ७७।२२)। पञ्च महायज्ञों को करते समय प्रति दिन भोजन-दान करने की व्यवस्था थी (इस विषय में हम पुनः 'वैश्वदेव' के प्रकरण में लिखेंगे)। आपस्तम्ब के अनुसार भिक्षा केवल निम्नलिखित कार्यों के लिए ही मांगी जा सकती है.(१) आचार्य के लिए, (२) अपने (प्रथम) विवाह के लिए, (३) यज्ञ के लिए, (४) अपने माता-पिता के रक्षण के लिए, (५) योग्य पुरुष के कर्तव्यों के विलोप को दूर करने के लिए। ऐसे अवसरों पर लोगों को यथाशक्ति देना चाहिए, और जो केवल अपने सुख के लिए मिक्षा माँगे, उसे नहीं देना चाहिए।" भूख से तड़पता हुआ व्यक्ति कुछ मांग सकता है, यथा जोती हुई या अनजोती हुई भूमि, गाय, भेड़ या भेड़ी, और अन्त में सोना, अन्न या पका हुआ भोजन, किन्तु स्नातक को भूख से बेहाल नहीं होना चाहिए, ऐसा विधान है (वसिष्ठ १२।२-३; मनु १०।११४; विष्णु ३१७९-८०) । अध्ययन-समाप्ति के पश्चात् भिक्षाटन करना अशुचिकर माना गया है (बौधायन १६६४)। तीन दिनों तक बुभुक्षित रहने पर मनुष्य अपने से नीची जाति वाले के खलिहान, खेत, घर या कहीं से एक दिन के लिए अन्न बिना कहे (या चुराकर) ले सकता है, किन्तु पूछने पर उसे ३५. सायं प्रातः सदा सन्ध्यां ये विप्रा नो उपासते। कामं तान् धार्मिको राजा शूबकर्मसु योजयेत् ॥ बौ० २।४।२०। ३६. अश्रोत्रिया अननुवाक्या अनग्नयो शूद्रसधर्माणो भवन्ति। मानवं चात्र श्लोकमुदाहरन्ति । योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम् । स जीवन्नेव शूद्रत्वमाशु गच्छति सान्वयः॥ वसिष्ठ ३११-२; यह श्लोक लम्वाश्वलायन २२।२३ में भी है। देखिए, वसिष्ठ ५।१० भी तथा लघ्वाश्व० २२२२१-२२; गायत्रीरहितो विप्रः शूद्रादप्यशुचिर्भवेत्। पराशर ८२२४; उसके आगे है-दुःशीलोऽपि द्विजः पूज्यो न शूद्रोविजितेन्द्रियः। अग्निकार्यात्परिभ्रष्टाः सन्ध्योपासनवर्जिताः। वेवं चैवानधीयानाः सर्वे ते वृषलाः स्मृताः॥ अध्येतव्योऽप्येकदेशो यदि सर्वन शक्यते। पराशर १२॥३२-३३ । अनभ्यासाच्च वेवानामाचारस्य च वर्जनात् । आलस्यादन्नदोषाच्च मृत्युर्विप्राजिघांसति ॥ मनु ५।४। ३७. भिक्षणे निमितमाचार्यों विवाहो यज्ञो मातापित्रोर्बुभूऽहंतश्च नियमविलोपः। तत्र गुणान् समीक्ष्य यथाशक्ति देयम्। इन्द्रियप्रीत्यर्यस्य तु भिक्षणमनिमित्तम्। तस्मान्न तदाद्रियेत। आपस्तम्ब २।५।१०।१-४; मिलाइए, मनु ४।२५१, ११।१-२; याज्ञ० ११२१६; गौतम ५१९-२०; शान्तिपर्व १६५।१-२ । हतार्थो यक्ष्यमाणश्च सर्ववेदान्तगश्च यः। आचार्यपितृकार्याथं स्वाध्यायार्थमयापि च ॥ एते व साधवो दृष्टा ब्राह्मणा धर्मभिक्षवः॥ अंगिरा ने लिखा है-व्याषितस्य.दरिद्रस्य कुटुम्बात्प्रच्युतस्य च । अध्वानं प्रतिपन्नस्य भिक्षाचर्या विधीयते॥ अंगिरा (गृहस्थरत्नाकर, १० ४५०)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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