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________________ वर्णों के कर्तव्य, अयोग्यताएँ एवं विशेषाधिकार १४७ वृत्तियाँ सभी ब्राह्मणों की शक्ति के भीतर नहीं थी, अतः अन्य ब्राह्मण इन तीन वृत्तियों (जीविकाओं) के अतिरिक्त अन्य साधन भी अपनाते थे। धर्मशास्त्रों ने इसके लिए व्यवस्था दी है । गौतम (६।६ एवं ७) ने लिखा है कि यदि ब्राह्मण लोग शिक्षण (अध्यापन), पौरोहित्य एवं प्रतिग्रह या दान से अपनी जीविका न चला सकें तो वे क्षत्रियों की वृत्ति (युद्ध एवं रक्षण कार्य कर सकते हैं, यदि वह भी सम्भव न हो तो वे वैश्य-वृत्ति भी कर सकते हैं। इसी प्रकार क्षत्रिय लोग वैश्य-वृत्ति कर सकते है (गौतम ६२६)। बौधायन (२।२।७७-७८ एवं ८०) एवं वसिष्ठ (२।२२), मनु (१०।८१-८२), याज्ञ० (३।३५), नारद (ऋणादान, ५६), विष्णु (५४।२८), शंखलिखित आदि ने भी यही बात कुछ उलट-फेर के साथ कही है। किन्तु क्षत्रिय ब्राह्मण-वृति, वैश्य ब्राह्मण-क्षत्रिय-वृत्ति एवं शूद्र ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-वृत्ति नहीं कर सकते थे (वसिष्ठ २१२३ ; मन १०१५५)। आपत्काल हट जाने पर उपयुक्त प्रायश्चित्त करके अपनी विशिष्ट वृत्ति की ओर लौट आना चाहिए; ऐमी स्मृति-व्यवस्था है। इतना ही नहीं, अन्य जाति की वृत्ति करने से जो धन की प्राप्ति होती थी, उसे भी त्याग देना पड़ता था (मन ११११९२-१९३, विष्णु ५४।३७-३८; याज्ञ० ३।३५%, नारद-ऋणादान, ५९।६०)। निम्न वर्ण के लोग उच्च वर्ण की वृत्ति नहीं कर सकते थे, अन्यथा करने पर राजा उनकी सम्पत्ति जप्त कर सकता था (मन १०।९६) । रामायण में वर्णित शम्बूक की कथा इसी प्रकार की है (७३-७६) । भवभूति के उत्तररामचरित में भी यही मनोभाव झलकता है। यदि कोई शूद्र जप, तप, होम करे या सन्यासी हो जाय या वैदिक मन्त्र पढें तो उसे राजा द्वारा प्राणदण्ड दिया जाता था और उसे नैतिक पाप का भागी ममझा जाता था। मनु (१०।१८) का कहना है कि यदि वैश्य अपनी वृत्ति से अपना पालन न कर सके, तो वह शुद्र-वृत्ति कर सकता है, अर्थात् द्विजातियों की सेवा कर सकता है। गौतम (७।२२-२४) के अनुसार आपत्काल में ब्राह्मण अपने कर्मों के अतिरिक्त शूद्र-वृत्ति कर सकता है, किन्तु वह शूद्रों के साथ भोजन नहीं कर सकता, न चौकाबरतन कर सकता और न वजित भोजन-सामग्री (लहसुन-प्याज आदि) का प्रयोग कर सकता है (यही बात देखिए मनु ४।४ एवं ६; नारद-ऋणादान, ५७) । शूद्रों की स्थिति--प्राचीन आचार्यों के अनुसार शूद्रों का विशिष्ट कर्तव्य था द्विजातियों की सेवा करना एवं उनसे भरण-पोपण पाना।" उन्हें क्षत्रियों की अपेक्षा ब्राह्मणों की सेवा करने से अधिक सुख प्राप्त हो सकता था, इसी प्रकार वैश्यों की अपेक्षा क्षत्रियों की सेवा अधिक श्रेयस्कर सिद्ध होती थी। गौतम (१०॥६०-६१), मनु (१०.१२४-१२५) तथा अन्य आचार्यों के अनुसार शूद्र अपने स्वामी द्वारा छोड़े गये पुराने वस्त्र, छाता, चप्पल, चटायाँ आदि प्रयोग में लाता था और स्वामी द्वारा त्यक्त उच्छिष्ट भोजन करता था। वुढ़ापे में उसका पालनपोषण उसका स्वामी ही करना था (गौतम १०।६३) । किन्तु कालान्तर में शूद्र-स्थिति में कुछ सुधार हुआ। यदि ११. आपत्काले मातापितमतो बहुभृत्यस्यानन्तरका वृत्तिरिति कल्पः। तस्यानन्तरका वृत्तिः क्षात्रोऽभिनिवेशः। एवमप्यजीवन्वंश्यमुपजीवेत्। शंखलिखित। १२. बध्यो राजा सबै शूद्रो जपहोमपरश्च यः। ततो राष्ट्रस्य हन्तासौ यथा वह्वश्च वै जलम् ॥जपस्तपस्तीर्थपात्रा प्रवज्या मन्त्रसाधनम् । देयताराधनं चव स्त्रीशूद्रपतनानि षट् ॥ अत्रि १९।१३६-१३७; वनपर्व १५०।३६ । १३. शुश्रूषा शूद्रस्येतरेषां वर्णानाम् । पूर्वस्मिन् पूर्वस्मिन्वणे नियस भूयः। आपस्तम्ब ११११११७-८; परिपर्या चोतरेषाम् । तेभ्यो वृत्ति लिप्सेत् । तत्र पूर्व परिचरेत् । गौतम (१०५७-५९); प्रजापतिहिं वर्णानां दास शूहमकल्पयत् । शान्तिपर्य ६०।२८; देखिए, वसिष्ठ २२०; मन १०।१२१-१२३; याज्ञ० १११२०; बौधायन १२१०५, बनपर्व १५०३६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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