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धर्मशास्त्र का इतिहास वह उच्च वर्गों की सेवा से अपनी या अपने कुटुम्ब की जीविका नहीं चला पाता था तो बढ़ईगिरी, चित्रकारी, पच्चीकारी, रंगसाजी आदि से निर्वाह कर लेता था।" यहाँ तक कि नारद (ऋणादान, ५८) के अनुसार आपत्काल में शूद्र लोग क्षत्रियों एवं वैश्यों का कार्य कर सकते थे। इस विषय में याज्ञवल्क्य भी उसी प्रकार उदार हैं (याज्ञ० १११२०)। महाभारत भी इस विषय में मौन नहीं है, उसने भी व्यवस्थ. दी है। लघ्वाश्वलायन (२२।५), हारीत (७११८९ एवं १९२) ने कृषि-कर्म की व्यवस्था दी है।" कालिकापुराण ने शूद्रों को मधु, चर्म, लाक्षा (लाह), आसव एवं मांस को छोड़कर सब कुछ क्रय-विक्रय करने की आज्ञा दी है। बहत्पराशर ने आसव एवं मांस बेचना मना किया है। देवल ने लिखा है कि शूद्र द्विजातियों की सेवा करे तथा कृषि, पशुपालन, भार-वहन, क्रय-विक्रय (पण्य-व्यवहार या रोजगारी या सामान का क्रय-विक्रय), चित्रकारी, नृत्य, संगीत, वेणु, वीणा, ढोलक, मृदंग आदि वाद्ययन्त्र वादन का कार्य करे। गौतम (१०१६४-६५), मनु (१०।१२९) तथा अन्य आचार्यों ने शूद्रों को धनसंचय से मना किया है, क्योंकि उससे ब्राह्मण आदि को कष्ट हो सकता था।
शूद्र कतिपय भागों एवं उपविभागों में विभाजित थे, किन्तु उनके दो प्रमुख विभाग थे; अनिरवसित शूद्र (यथा बढ़ई, लोहार आदि) तथा निरवसित शूद्र (यथा चाण्डाल आदि)। इस विषय में देखिए महाभाष्य (पाणिनि २।४।१०, जिल्द १)। एक अन्य विभाजन के अनुसार शूद्रों के अन्य दो प्रकार हैं--भोज्यान्न (जिनके द्वारा बनाया हुआ भोजन ब्राह्मण कर सके) एवं अभोज्यान्न। प्रथम प्रकार में अपने दास, अपने पशुपालक (गोरखिया या चरवाहा), नाई, कुटुम्ब-मित्र तथा खेती-बारी के साझेदार (याज्ञ० १११६६) हैं। मिताक्षरा ने कुम्हार को भी इस सूची में रख दिया है। अन्य प्रकार के शूद्रों से ब्राह्मण भोजन नहीं ग्रहण कर सकता था। एक तीसरा शूद्र-विभाजन है; सच्छूद्र (अच्छे आचरण वाले शूद्र) एवं असच्छूद्र । प्रथम प्रकार में वे शूद्र आते थे जो सद् व्यवसाय करते थे, द्विजातियों की सेवा करते थे और मांस एवं आसव का परित्याग कर चुके थे।
सेनानियों के रूप में ब्राह्मण--बहुत प्राचीन काल से कुछ ब्राह्मणों को युद्ध में रत देखा गया है। पाणिनि (५।२।७१) ने 'ब्राह्मणक' शब्द की व्याख्या में लिखा है कि यह उस देश के लिए प्रयुक्त होता है, जहाँ ब्राह्मण आयुध अर्थात् अस्त्र-शस्त्र की वृत्ति करते हैं। कौटिल्य (९।२) ने ब्राह्मणों की सेना का वर्णन किया है, किन्तु यह भी कहा है कि शत्रु ब्राह्मणों के पैरों पर गिरकर उन्हें अपनी ओर मिला सकता है। आपस्तम्ब (१।१०।२९-७), गौतम (७६), बौधायन (२।२।८०), वसिष्ठ (३।२४) एवं मनु (८।३४८-३५९) के वचन स्मरणीय हैं।८
१४. शिल्पाजीवं भूतिं चैव शूद्राणां व्यदधात्प्रभुः। वायुपुराण ८३१७१; शूद्रस्य द्विजशुभूषा सर्वशिल्पानि चाप्यथ। शंखस्मृति ११५; मनु १०।९९-१००।
१५. वाणिज्यं पाशुपाल्यं च तथा शिल्पोपजीवनम् । शूद्रस्यापि विधीयन्ते यदा वृत्तिन जायते ॥ शान्तिपर्व २९५।४; शूद्रस्य द्विजशुश्रूषा सर्वशिल्पानि वाप्यथ। विक्रयः सर्वपल्यानां शाकर्म उदाहृतम् ॥ उशना तथा वेलिए लघ्वाश्वलायन २२।५।
१६. शूद्रधर्मो द्विजातिशुश्रूषा पापवर्जनं कलत्रादिपोषणं कर्षणपशुपालनभारोबहन-पण्यव्यवहार-चित्रकर्मनृत्य-गीत-वेणु-वीणामुरजमृदंगवादनादोनि। देवल (मिताक्षरा, याज्ञ० १११२०)।
१७. न सुरां सन्धयेद्यस्तु आपणेषु गृहेषु च । न विक्रीणाति च तथा सच्छूद्रो हि स उच्यते॥ भविष्यपुराण (ब्राह्मविभाग, अध्याय ४४।३२)।
१८. परीक्षार्थोऽपि ब्राह्मण आयुधं नाददीत । आपस्तम्ब (१।१०।२९।७); प्राणसंशये ब्राह्मणोऽपि शस्त्र.
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