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________________ १४६ धर्मशास्त्र का इतिहास के अनुसार पात्रता पर ध्यान देना परमावश्यक है। जो ब्राह्मण अपने माता-पिता, गुरु के प्रति सत्य हो, जो दरिद्र हो, जो सकरुण हो और हो इन्द्रिय-निग्रही, उसी को दान देना चाहिए ( वसिष्ठ ६।२६ याज ११२०० ) । दान लेने वाले और न लेने वाले ब्राह्मणों के विषय में स्मृतियों में पर्याप्त चर्चा है । शान्तिपर्व (१९९) में ब्राह्मणों को दो भागों में बाँटा गया है -- ( १ ) प्रवृत्त, जो धन के लिए सभी प्रकार के कार्यों में प्रवृत्त होते हैं, और ( २ ) निवृत्त, अर्थात् जो प्रतिग्रह ( दान लेने) से दूर रहते हैं । निस्सन्देह प्रतिग्रह ब्राह्मणों का ही विशेषाधिकार था, किन्तु दान किसी भी व्यक्ति द्वारा किसी को भी दिया जा सकता था । इस विषय में याज्ञ० १६ पठनीय है। गौतम (५११८), मनु (१८५), ब्यान ( ४/४२), दक्ष ( ३।२२८) ने कहा है कि जन्म से ही ब्राह्मण को, थोत्रिय ( या आचार्य) को, जिसने सभी वेदों पर अधिकार प्राप्त कर लिया हो उसको जो दान दिया जाता है, वह, अब्राह्मण को दान देने से जो सहस्र या अनन्त गुना पुण्य होता है उससे दुगुना फल देता है । गौतम ( ५1१९-२० ) एवं वांधायन ( २३|१५ ) ने ऐसी व्यवस्था दी है कि जब कोई ब्राह्मण श्रोत्रिय या वेदपारंग गुरु को दक्षिणा देने के लिए, विवाह के लिए, औषधि के लिए अध्ययन एवं यात्रा के लिए दान माँगे तो यज्ञ करने के उपरान्त दानी को अपने धन की सामर्थ्य के अनुसार दान अवश्य देना चाहिए । मनु ( ११।१ - ३ ) ने भी इस विषय में पर्याप्त चर्चा की है। आरम्भ में दान एवं प्रतिग्रह-सम्बन्धी सुन्दर आदर्श उपस्थित किये गये थे, किन्तु कालान्तर में ब्राह्मणों की संख्या वृद्धि, जन-संख्या वृद्धि दानाभाव, पौरोहित्य कार्य के घट जाने आदि के कारण नियमों में शिथिलता पायी जाने लगी और शिक्षित अथवा अशिक्षित सभी प्रकार के ब्राह्मणों को दान दिया जाने लगा और वे दान देने मी लगे। इसके लिए स्कन्दपुराण, वृद्ध-गौतमस्मृति आदि में व्यवस्था की गयी है कि जिस प्रकार अग्नि सभी रूप में पवित्र और देवता है, इसी प्रकार ब्राह्मण है।" जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, शिक्षण कार्य से बहुत थोड़े धन की उपलब्धि हो सकती थी । आज की भाँति प्राचीन काल में राजकीय पाठशालाएँ नहीं थी, जहाँ पर वेतन सम्बन्धी स्थिरता प्राप्त होती | उस समय कापीराइट का भी विधान नहीं था कि जिससे अध्यापक गण पाठ्यक्रम की पुस्तकों के प्रकाशन से धन कमा सकते। ब्राह्मणों का कोई संघ भी नहीं था, जैसा कि एंग्लिकन चर्च में पाया जाता है, जहाँ आर्क बिशप, बिशप एवं अन्य पवित्र पुरुषों का क्रम पाया जाता है। प्राचीन भारत में इच्छा पत्र ( विल) की भी व्यवस्था नहीं थी कि जिससे बहुत-से धनिकों की सम्पत्ति प्राप्त होती । पौरोहित्य के कार्य से कुछ विशेष मिलने की गुंजाइश नहीं थी । श्राद्ध के समय अधिक ब्राह्मणों को निमन्त्रित करने का विधान नहीं था ( मनु ३१२५-१२६, गौतम १५।७-८, याज्ञ० १।२२८ ) । न तो सभी ब्राह्मण उतनी बुद्धि, स्मृति एवं धैर्य वाले थे कि बारह वर्षों तक वेदाध्ययन करते और विद्वत्ता प्राप्त करते । अध्यापन, पुरोहिती ( यजमानी या जजमानी) तथा प्रतिग्रह नामक ९. समद्विगुणसाहस्रानन्त्यानि फलान्यब्राह्मणब्राह्मणश्रोत्रियवेदपारगेभ्यः । गौ० ५।१८; सममब्राह्मणे दानं द्विगुणं ब्राह्मणवे । प्राधीते शतसाहस्रमनन्तं वेदपारगे । मनु० ७।८५; व्यास ४।४२ । १०. दुर्वृत्ता वा सुवृत्ता वा प्राकृता वा सुसंस्कृताः । ब्राह्मणा नावमन्तव्या भस्मच्छन्ना इवाग्नयः ॥...... ter: कुब्जा वामनाश्च दरिद्रा व्याधितास्तथा । नावमान्या द्विजा प्राज्ञर्मम रूपा हि ते द्विजाः ॥ वृद्ध गौतम ; देखिए वनपर्व २००1८८-८९ - दुर्वेदा वा सुवेदा वा प्राकृताः संस्कृतास्तथा । ग्नयः ॥ यथा श्मशाने दीप्तौजा पावको नैव दुष्यति । एवं विद्वानविद्वान्वा ब्राह्मणो देवतं महत् ॥ और देखिए, अनुशासनपर्व १५२।१० एवं २३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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