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वों के कर्तव्य, अयोग्यताएँ एवं विशेषाधिकार
अपनी जीविका न चला सकें तो फसल कट जाने के बाद खेत में जो धान्ब की बालियां गिर पड़ी हों उन्हें चुनकर खायें। दान लेने से यह कष्टकर कार्य अच्छा है। इसे ही मनु ने 'ऋत' की संज्ञा दी है (४५)। मनु (४।१२, १५, १७), याज्ञवल्क्य (१।१२९), व्यास, महाभारत (अनुशासनपर्व ६१।१९) आदि में ब्राह्मणों के सादे जीवन पर बल दिया गया और उन्हें धन-संग्रह से सदा दूर रहने को उद्वेलित किया गया है।
गौतम (९।६३), याज्ञवल्क्य (१११००), विष्णुधर्मसूत्र (६१११) एवं लघु-व्यास (२१८) के अनुसार ब्राह्मण को अपने योगक्षेम (जीविका एवं रक्षण) के लिए राजा या धनिक जन के पास जाना चाहिए। मनु (४।३३), याज्ञवल्क्य (१११३०) एवं वसिष्ठधर्मसूत्र (१२।२) के अनुसार क्षुधापीड़ित होने पर ब्राह्मण को राजा, अपने शिष्य या सुपात्र के यहाँ सहायता के लिए जाना चाहिए। किन्तु अधार्मिक राजा या दानी से दान ग्रहण करना मना है। यदि उपर्युक्त तीन प्रकार के (राजा, शिष्य या इच्छुक सुपात्र दानी) दाता न मिलें तो अन्य योग्य द्विजातियों के पास जाना चाहिए (गौतम १७।१-२)। यदि यह भी सम्भव न हो तो ब्राह्मण किसी से भी, यहाँ तक कि शद्र से भी (मन १०११०२-१०३) दान ले सकता है। किन्तु शद्र से दान । अग्निहोत्र नहीं करना चाहिए, नहीं तो आगामी जन्म में चाण्डाल होना पड़ेगा (मनु १११२४ एवं ४२, याज्ञ० १।१२७) । इस विषय में मनु (४।२५१), वसिष्ठ (१४।१३), विष्णु (५७।१३), याज्ञ० (११२१६), गौतम (१८१२४-२५), आपस्तम्ब (११२।७।२०-२१) आदि के वचनों को देखना चाहिए। स्मृतियों के अनुसार राजाओं का यह कर्तव्य था कि वे श्रोत्रियों (वेदज्ञाता ब्राह्मणों) या दरिद्र ब्राह्मणों की जीविका का प्रबन्ध करें (गौतम १०१९-१०, मनु ७।१३४, याज्ञ० ३।४४, अत्रि ४४)। यह आदर्श पालित भी होता था। कार्ले अभिलेख नं० १३ एवं नासिक गुफा अभिलेख नं० १२ से पता चलता है कि उशवदात (ऋषभदत्त) ने एक लाख गौएँ एवं १६ ग्राम प्रभास (एक तीर्थ-स्थान) पर ब्राह्मणों को दिये, उनमें बहुतों के विवाह कराये और प्रति वर्ष एक लाख ब्राह्मणों को भोजन कराया। बहुत-से दानपत्रों से प्रकट होता है कि राजाओं ने पंचमहायज्ञों, अग्निहोत्र, वैश्वदेव, बलि एवं चरु के लिए दान आदि देकर अति प्राचीन परम्पराओं का पालन किया था। प्रतिग्रह अर्थात् दान लेने का आदर्श यह था कि ब्राह्मण भरसक इससे दूर रहे तो अत्युत्तम है। दान लेना कभी भी उत्तम नहीं समझा गया है (मनु १०२१३, ४।१८६, ४।१८८-१९१, याज्ञ० ११२००-२०२, वसिष्ठ ६।३२, अनुशासनपर्व)। जिस प्रकार अविद्वान् ब्राह्मण को दान लेना मना था उसी प्रकार अयोग्य व्यक्ति को दान देना भी वजित था (शतपथ ब्राह्मण ४।३।४।१५; आपस्तम्ब २।६।१५।९-१०, वसिष्ठ ३१८ एवं ६।३०; मनु ३।१२८, १३२ एवं ४१३१; याज्ञ० १।२०१; दक्ष ३।२६ एवं ३१) । स्मृतियों में स्पष्ट आया है कि जिसने वेद का अध्ययन न किया हो, जो कपटी हो, लालची हो उसे दान देना व्यर्थ है, बल्कि उसे दान देने से नरक मिलता है (मनु ४।१९२-१९४, अत्रि १५२, दक्ष ३।२९)। मनु (११।१-३) ने केवल ९ प्रकार के निधन स्नातकों को भोजन, शुल्क आदि देने में प्राथमिकता दी है। यदि कोई बिना माँगे दान दे तो उसे ग्रहण कर लेने की व्यवस्था स्मृतियों में पायी जाती है, यहाँ तक कि बुरे काम करने के अपराधियों से भी बिना माँगा दान ग्रहण करना चाहिए। किन्तु इस विषय में दुराचारिणी स्त्रियों, नपुंसक पुरुषों एवं पतित लोगों (महापातक करनेवालों) से दान लेना वर्जित माना गया है (याज्ञ० १११२५; मनु ४१२४८-२४९; आपस्तम्बधर्मसूत्र १।६।१९।११-१४; विष्णुधर्मसूत्र ५७१११)। बहुत-से मनुष्यों से दान लेना मना किया गया है (मनु ४।२०४-२२४, वसिप्ट १४१२-११)।
सन्निकट रहनेवाले विद्वान् पड़ोसी ब्राह्मण को ही दान देने की व्यवस्था की गयी है, किन्तु यदि पास में ब्राह्मण हों और वे अशिक्षित एवं मूर्ख हों तो दूर के योग्य ब्राह्मण को ही दान देना चाहिए (वसिष्ठ ३।९-१०; मनु ८।३९२; व्यास ४१३५-३८; बृहस्पति ६०, लघु शातातप' ७६-७९; गोभिलस्मृति २।६६-६९) । देवल
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