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________________ वों के कर्तव्य, अयोग्यताएँ एवं विशेषाधिकार आयी और सम्पत्ति के समान अपनी रक्षा के लिए उसने प्रार्थना की। पतञ्जलि के महाभाष्य में आया है कि ब्राह्मणों को बिना किसी कारण के धर्म, वेद एवं वेदांगों का अध्ययन करना चाहिए। मनु (४।१४७) के अनुसार ब्राह्मणों के लिए वेदाध्ययन परमावश्यक है, क्योंकि यह परमोच्च धर्म है। याज्ञवल्क्य (१३१९८) ने कहा है कि विधाता ने ब्राह्मणों को वेदों की रक्षा के लिए, देवों एवं पितरों की तुष्टि तथा धर्म की रक्षा के लिए उत्पन्न किया है। अत्रि में भी यही बात पायी जाती है। कुछ आचार्यों (बौधायनगृह्यपरिभाषा १११०१५-६; तै० सं० २।१५।५) ने यहाँ तक लिख दिया है कि जिस ब्राह्मण के घर में वेदाध्ययन एवं वेदी (श्रौत क्रियासंस्कारों के लिए अग्नि-प्रतिष्ठा) का त्याग हो गया हो, वह तीन पीढ़ियों में दुर्ब्राह्मण हो जाता है। इसी प्रकार तैत्तिरीय संहिता (२।१।१०।१) में भी संकेत है। वेदाध्यापन--सम्भवत: आरम्भिक काल में पुत्र अपने पिता से वेद की शिक्षा पाता था। श्वेतकेतु आरुणेय की गाथा (छान्दोग्य० ५।३।१ एवं ६।१११-२; बृ० उ० ६।२।१) से पता चलता है कि उन्होंने अपने पिता से ही सब वेदों का अध्ययन किया था, इतना ही नहीं, देवों, मनुष्यों एवं असुरों ने अपने पिता प्रजापति से शिक्षा प्राप्त की थी (बृ० उ० ५।२।१)। ऋग्वेद के ७।१०३।५ से पता चलता है कि शिक्षा-पद्धति वाचिक (अलिखित) पी, अर्थात् शिष्य अपने गुरु के शब्दों को दुहराते थे। ब्राह्मण-ग्रन्थों के काल से धर्मशास्त्र-काल तक सर्वत्र वेदाध्यापन-कार्य ब्राह्मणों के हाथ में था। जैसा कि हमने ऊपर देख लिया है, कुछ क्षत्रिय आचार्य या दार्शनिक भी थे (शतपथब्राह्मण ८।१।४।१० एवं ११।६।२ आदि), किन्तु वे सामान्यतः निम्न प्रतिष्ठा के पात्र थे। आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।२।४।२५-२८) में आया है कि गुरु केवल ब्राह्मण ही हो सकते हैं, किन्तु आपत्काल में, अर्थात् ब्राह्मण-गुरु की अनुपस्थिति में ब्राह्मण क्षत्रिय या वैश्य से पढ़ सकता है। ब्राह्मण-शिष्य क्षत्रिय या वैश्य गुरु के पीछे-पीछे चल सकता है, किन्तु पैर दबाने की सेवा या कोई अन्य शरीर-सेवा नहीं कर सकता; पढ़ने के उपरान्त वह गुरु के आगे-आगे जा सकता है। ये ही नियम गौतम (७।१।३), मनु (१०।२, २।२४१) में भी पाये जाते हैं। मनु (२।२४२) ने लिखा है कि एक नैष्ठिक ब्रह्मचारी किसी अब्राह्मण गुरु के यहाँ ठहर नहीं सकता, भले ही वह किसी शद्र से कोई उपयोगी या हितकर कला या कौशल सीख ले (२।२३८))। वेदाध्यापन से प्रचुर धन की प्राप्ति सम्भव नहीं थी। केवल ब्राह्मण ही पुरोहित्य कर सकता था। जैमिनि ने लिखा है कि क्षत्रिय या वैश्य ऋत्विक् नहीं हो सकता, अतः सत्र (एक ऐसा यज्ञ जो बहुत दिनों या वर्षों तक चलता रहता है) केवल ब्राह्मणों द्वारा ही सम्पादित हो सकता है। त्रिशंकु को चाण्डाल हो जाने का शाप मिल चुका था, किन्तु विश्वामित्र ने उसके लिए यज्ञ करने की ठानी, किन्तु रामायण का कहना है कि देवता एवं ऋषि उसकी हवि को स्वीकार नहीं कर सकते थे। किन्तु यह सन्देहास्पद है कि ऐसी स्थिति (कठिन नियम) प्राचीन २. ये मन्त्र वसिष्ठधर्मसूत्र (२१८-११) में भी मिलते हैं। इनमें तीन (केवल 'अध्यापिता ये' को छोड़कर) विष्णु (२९।९-१० एवं ३०४७) में भी प्राप्त होते हैं। मनु (२।११४-११५) में दो मन्त्रों का अर्थ आ जाता है। ३. ब्राह्मणेन निष्कारणो धर्मः षडंगो वेदोऽध्येयो ज्ञेय इति । महाभाष्य (जिल्द २, पृ० १५)। ४. ब्राह्मणानां वेतरयोरात्विज्याभावात्। जैमिनि ६।६।१८, ब्राह्मणा ऋत्विजो भक्षप्रतिषेधावितरयोः । कात्या० श्रौ० १।२।२८। ५. क्षत्रियो याजको यस्य चण्डालस्य विशेषतः। कथं सदसि भोक्तारो हविस्तस्य सुरर्षयः॥ बालकाण ५९।१३-१४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002789
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1992
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size20 MB
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